पाठ 9 लखनवी अंदाज हिन्दी कक्षा 10 गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या एवं सम्पूर्ण अभ्यास प्रश्नोत्तर || Path 9 Lakhanavi Andaj Prashnottar
मुफस्सिल की पैसेंजर ट्रेन चल पड़ने की उतावली में फूँकार रही थी। आराम से सेकंड क्लास में जाने के लिए दाम अधिक लगते हैं। दूर तो जाना नहीं था। भीड़ से बचकर, एकांत में नयी कहानी के संबंध में सोच सकने और खिड़की से प्राकृतिक दृश्य देख सकने के लिए टिकट सेकंड क्लास का ही ले लिया।
गाड़ी छूट रही थी। सेकंड क्लास के एक छोटे डिब्बे को खाली समझकर, जरा दौड़कर उसमें चढ़ गए। अनुमान के प्रतिकूल डिब्बा निर्जन नहीं था। एक बर्थ पर लखनऊ की नवाबी नस्ल के एक सफ़ेदपोश सज्जन बहुत सुविधा से पालथी मारे बैठे थे। सामने दो ताजे-चिकने खीरे तौलिए पर रखे थे। डिब्बे में हमारे सहसा कूद जाने से सज्जन की आँखों में एकांत चिंतन में विघ्न का असंतोष दिखाई दिया। सोचा, हो सकता है, यह भी कहानी के लिए सूझ की चिंता में हों या खीरे-जैसी अपदार्थ वस्तु का शौक करते देखे जाने के संकोच में हों।
नवाब साहब ने संगति के लिए उत्साह नहीं दिखाया। हमने भी उनके सामने की बर्थ पर बैठकर आत्मसम्मान में आँखें चुरा लीं।
ठाली बैठे, कल्पना करते रहने की पुरानी आदत है। नवाब साहब की असुविधा और संकोच के कारण का अनुमान करने लगे। संभव है, नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा कर सकने के अनुमान में किफ़ायत के विचार से सेकंड क्लास का टिकट खरीद लिया हो और अब गवारा न हो कि शहर का कोई सफ़ेदपोश उन्हें मँझले दर्जे में सफ़र करता देखे।... अकेले सफ़र का वक्त काटने के लिए ही खीरे खरीदे होंगे और अब किसी सफ़ेदपोश के सामने खीरा कैसे खाएँ?
हम कनखियों से नवाब साहब की ओर देख रहे थे। नवाब साहब कुछ देर गाड़ी की खिड़की से बाहर देखकर स्थिति पर गौर करते रहे।
'ओह', नवाब साहब ने सहसा हमें संबोधन किया, 'आदाब-अर्ज', जनाब, खीरे का शौक फ़रमाएँगे?
नवाब साहब का सहसा भाव-परिवर्तन अच्छा नहीं लगा। भाँप लिया, आप शराफ़त का गुमान बनाए रखने के लिए हमें भी मामूली लोगों की हरकत में लथेड़ लेना चाहते हैं। जवाब दिया, 'शुक्रिया, किबला शौक फरमाएँ।'
नवाब साहब ने फिर एक पल खिड़की से बाहर देखकर गौर किया और दृढ़ निश्चय से खीरों के नीचे रखा तौलिया झाड़कर सामने बिछा लिया। सीट के नीचे से लोटा उठाकर दोनों खीरों को खिड़की से बाहर धोया और तौलिए से पोंछ लिया। जेब से चाकू निकाला। दोनों खीरों के सिर काटे और उन्हें गोदकर झाग निकाला। फिर खीरों को बहुत एहतियात से छीलकर फाँकों को करीने से तौलिए पर सजाते गए।
लखनऊ स्टेशन पर खीरा बेचने वाले खीरे के इस्तेमाल का तरीका जानते हैं। ग्राहक के लिए जीरा-मिला नमक और पिसी हुई लाल मिर्च की पुड़िया भी हाजिर कर देते हैं।
नवाब साहब ने बहुत करीने से खीरे की फाँकों पर जीरा-मिला नमक और लाल मिर्च की सुर्खी बुरक दो। उनकी प्रत्येक भाव-भगिमा और जबड़ों के स्फुरण से स्पष्ट था कि उस प्रक्रिया में उनका मुख खीरे के रसास्वादन की कल्पना से प्लावित हो रहा था।
हम कनखियों से देखकर सोच रहे थे, मियाँ रईस बनते हैं, लेकिन लोगों की नजरों से बच सकने के खयाल में अपनी असलियत पर उतर आए है।
नवाब साहब ने फिर एक बार हमारी ओर देख लिया, 'वल्लाह, शौक कीजिए, लखनऊ का बालम खीरा है!'
नमक-मिर्च छिड़क दिए जाने से ताजे खीरे की पनियाती फाँकें देखकर पानी मुँह में जरूर आ रहा था, लेकिन इनकार कर चुके थे। आत्मसम्मान निबाहना ही उचित समझा, उत्तर दिया, 'शुक्रिया, इस बक्त तलब महसूस नहीं हो रही, मेदा भी जरा कमजोर है, किबला शौक फरमाएँ।'
नवाब साहब ने सतृष्ण आँखों से नमक-मिर्च संयोग के से चमकती खीरे की फाँकों को ओर देखा। खिड़की के बाहर देखकर दीर्घ निश्वास लिया। खीरे की एक फाँक उठाकर होंठों तक ले गए। फाँक को सूँघा। स्वाद के आनंद में पलकें मुँद गई। मुँह में भर आए पानी का घूँट गले से उतर गया। तब नवाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब खीरे की फाँकों को नाक के पास ले जाकर, वासना से रसास्वादन कर खिड़की के बाहर फेंकते गए।
नवाब साहब ने खीरे की सब फाँकों को खिड़की के बाहर फेंककर तौलिए से हाथ और होंठ पोंछ लिए और गर्व से गुलाबी आँखों से हमारी ओर देख लिया, मानो कह रहे हों-यह है खानदानी रईसों का तरीका!
नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थककर लेट गए। हमें तसलीम में सिर खम कर लेना पड़ा-यह है खानदानी तहजीब, नफ़ासत और नजाकत!
हम गौर कर रहे थे, खीरा इस्तेमाल करने के इस तरीके को खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से संतुष्ट होने का सूक्ष्म, नफ़ीस या एब्स्ट्रैक्ट तरीका जरूर कहा जा सकता है परंतु क्या ऐसे तरीके से उदर की तृप्ति भी हो सकती है?
नवाब साहब की ओर से भरे पेट के ऊँचे डकार का शब्द सुनाई दिया और नवाब साहब। ने हमारी ओर देखकर कह दिया, 'खीरा लजीज होता है लेकिन होता है सकील, नामुराद मेदे पर बोझ डाल देता है।'
ज्ञान-चक्षु खुल गए! पहचाना-ये हैं नयी कहानी के लेखक!
खीरे की सुगंध और स्वाद की कल्पना से पेट भर जाने का डकार आ सकता है तो बिना विचार, घटना और पात्रों के, लेखक की इच्छा मात्र से 'नयी कहानी' क्यों नहीं बन सकती?
लेखक परिचय―
यशपाल
यशपाल का जन्म सन् 1903 में पंजाब के फीरोजपुर छावनी में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा काँगड़ा में ग्रहण करने के बाद लाहौर के नेशनल कॉलेज से उन्होंने बी.ए, किया। वहाँ उनका परिचय भगत सिंह और सुखदेव से हुआ। स्वाधीनता संग्राम की क्रांतिकारी धारा से जुड़ाव के कारण वे जेल भी गए। उनकी मृत्यु सन् 1976 में हुई।
यशपाल की रचनाओं में आम आदमी के सरोकारों की उपस्थिति है। वे यथार्थवादी शैली के विशिष्ट रचनाकार हैं। सामाजिक विषमता, राजनैतिक पाखंड और रूढ़ियों के खिलाफ़ उनकी रचनाएँ मुखर हैं। उनके कहानी संग्रहों में ज्ञानदान, तर्क का तूफान, पिंजरे की उड़ान, वा दुलिया, फूलो का कुर्ता उल्लेखनीय हैं। उनका झूठा सच उपन्यास भारत विभाजन की त्रासदी का मार्मिक दस्तावेज है। अमिता, दिव्या, पार्टी कामरेड, दादा कामरेड, मेरी तेरी उसकी बात, उनके अन्य प्रमुख उपन्यास हैं। भाषा की स्वाभाविकता और सजीवता उनकी रचनागत विशेषता है।
पाठ का सारांश
लेखक यशपाल नई कहानी के बारे में सोचने के विचार से भीड़ से दूर सेकण्ड क्लास का टिकट ले गाड़ी में बैठ गए। डिब्बे में एक बर्थ पर नवाबी नस्ल के सफेदपोश बैठे थे। उन्हें डिब्बे में लेखक का आना एकान्त में बाधा जैसा लगा। लेखक को देखकर वे परेशान थे। उनके सामने दो खीरे रखे थे जो उन्होंने समय बिताने के लिए लिये होंगे। नवाब साहब ने लेखक से खीरे खाने को कहा किन्तु उन्होंने इन्कार कर दिया। नवाब साहब ने दोनों खीरों को धोकर चाकू से काटकर फाँके बना लीं और उन्हें गोदकर नमक जीरा बुरक दिया। खीरे की फाँकों को करीने से तौलिए पर सजा कर रख दिया। सजे खीरों को देख लेखक का मन ललचाया, नवाब साहब ने खीरे खाने को कहा भी किन्तु वे पहले मना कर चुके थे इसलिए अब भी इन्कार कर दिया।
नवाब साहब ने खीरे की एक फाँक उठाई और उसे सूंघकर खाने का आनन्द लिया और फाँक को खिड़की के बाहर फेंक दिया। उन्होंने बारी-बारी से सभी फाँकों को सूँघकर खिड़की के बाहर फेंक दिया। इसके बाद तौलिए से हाथ पोंछे और गर्व के साथ लेखक की ओर देखा। इस तरह उन्होंने यह दिखाने का प्रयत्न किया कि खानदानी लोग इसी तरह खीरे खाते हैं। लेखक समझ नहीं पाए कि क्या खीरे को सूँघने से पेट भर जाएगा। उसी समय नवाब साहब ने जोर से डकार ली और बोले खीरा लजीज होता है किन्तु सकील होता है, मेदे पर बोझ डाल देता है। यह सुनकर लेखक की समझ में आ गया कि बिना खीरा खाए नवाब डकार ले सकता है तो बिना घटना, पात्रों और विचार के कहानी भी लिखी जा सकती है।
महत्त्वपूर्ण शब्दार्थ
मुफस्सिल = बीच शहर के पास का स्थान।
पैंसेजर ट्रेन = सवारी गाड़ी।
उतावली = जल्दी में।
सेकण्ड क्लास = दूसरा दर्जा।
एकांत = अकेले में।
अनुमान = अंदाजा।
प्रतिकूल = विपरीत।
निर्जन = बिना किसी आदमी के।
सफेदपोश = भद्र पुरुष।
सुविधा = आसानी, आराम।
सहसा = अचानक।
विघ्न = बाधा।
किफायत = कम खर्च।
बर्थ = बैठने की सीट।
आत्मसम्मान = स्वाभिमान।
गवारा = स्वीकार।
मंझले दर्जे = बीच की श्रेणी।
गौर = ध्यान।
दृढ़ निश्चय = पक्का इरादा।
एहतियात = सावधानी।
बुरकना = बिखेरना।
असलियत = वास्तविकता।
पनियाती = रसीली।
शुक्रिया = धन्यवाद।
तलब = इच्छा।
तसलीम = सम्मान में।
महसूस = अनुभव।
मेदा = आमाशय।
सतृष्ण = इच्छाभरी।
दीर्घ निश्वास = लम्बी श्वास।
वासना = इच्छा।
तहजीब = शिष्टता।
नफासत = स्वच्छता।
नज़ाकत = कोमलता।
सूक्ष्म = बारीक।
नफीस = बढ़िया।
एक्स्ट्रैक्ट = अमूर्त।
तृप्ति = सन्तुष्टि।
सकील आसानी से न पचने वाली वस्तु।
सुगन्ध = खुशबू।
महत्त्वपूर्ण गद्यांशों की व्याख्याएँ
गद्यांश (1)― ठाली बैठे, कल्पना करते रहने की पुरानी आदत है। नवाब साहब की असुविधा और संकोच के कारण का अनुमान करने लगे। संभव है, नवाब साहब ने बिलकुल अकेले यात्रा कर सकने के अनुमान में किफायत के विचार से सेकण्ड क्लास का टिकट खरीद लिया हो और अब गवारा न हो कि शहर का कोई सफेदपोश उन्हें मंझले दर्जे में सफर करता देखे।
संदर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'लखनवी अंदाज़' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक यशपाल हैं।
प्रसंग- लेखक ने एकान्त में सोच सकने के लिए सेकण्ड क्लास का टिकट लेकर एकान्त में यात्रा का मन बनाया। किन्तु गाड़ी में पहुँचने पर उन्हें एक नवाब साहब बैठे मिले जिनको उनके आने से असुविधा हो रही थी।
व्याख्या- लेखक गाड़ी के डिब्बे में चढ़े तो देखा कि एक नवाब साहब पहले से डिब्बे में बैठे हैं। उन्होंने लेखक की ओर असन्तोष भरी नजरों से देखा। लेखक की पुरानी आदत है कि वे जब भी खाली होते तो कुछ-न-कुछ सोचने लगते हैं। इसलिए उन्होंने विचार करना प्रारम्भ कर दिया कि इन नवाब साहब को उनके आने से असुविधा और संकोच क्यों हो रहा है। लेखक ने सोचा कि सम्भवतः नवाब साहब ने अकेले यात्रा करने का मन बनाया होगा। इसीलिए कुछ कम खर्च करके सेकण्ड क्लास का टिकट खरीदा होगा। अब उन्हें उनका आना स्वीकार नहीं होगा। वे चाहते होंगे कि नगर के कोई सज्जन उन्हें सेकण्ड क्लास में यात्रा करते हुए न देखे। सेकण्ड क्लास में यात्रा करना उन्हें अपनी बेइज्जती लग रही होगी।
विशेष- (1) दिखावे का जीवन जीने वालों पर व्यंग्य किया गया है। (2) बनावटी जीवन जीने वालों की कुण्ठाओं को उजागर किया है। (3) आत्मकथन शैली तथा अरबी-फारसी शब्दों से युक्त खड़ी बोली का प्रयोग हुआ
गद्यांश (2)― नवाब साहब ने सतृष्ण आँखों से नमक-मिर्च के संयोग से चमकती खीरे की फाँकों की ओर देखा। खिड़की के बाहर देखकर दीर्घ निस्वास लिया। खीरे की एक फाँक उठाकर होंठों तक ले गए। फाँक को सूँघा। स्वाद के आनंद में पलकें मूँद गईं। मुँह में भर आए पानी का घूँट गले से उतर गया। तब नवाब साहब ने फाँक को खिड़की से बाहर छोड़ दिया। नवाब साहब खीरे की फाँकों को नाक के पास ले जाकर, वासना से रसास्वादन कर खिड़की के बाहर फेंकते गए।
संदर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के 'लखनवी अंदाज़' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक यशपाल हैं।
प्रसंग- इस गद्यांश में नवाव साहब के खोरे खाने के विचित्र अंदाज़ का चित्रण किया गया है।
व्याख्या- नवाब साहब ने खोरे धोए और तौलिए पर सजाकर रखे। उन पर नमक-मिर्च बिखेर दिया। फिर उन्होंने नमक-मिर्च के संयोग से तैयार हुए रसीले खीरों की फाँकों को देखा। इन्हें देखने के बाद खिड़की के बाहर नजर दौड़ाई फिर गहरी श्वास ली। फिर उन्होंने खीरे की एक फाँक उठाकर हाथ में ली और उसे अपने होंठों के पास ले गए। इसके बाद उस फाँक को सूँघा। खीरे के स्वाद के आनन्द का अनुभव करते हुए पलकें बन्द कर लीं। उनके मुँह में खीरे के रसास्वादन से पानी भर आया था, उसे गले के नीचे निगल लिया। इसके बाद खीरे की फाँक को बिना खाए खिड़की के बाहर फेंक दिया। उन्होंने इसी तरह खीरे की सभी फाँकों को नाक के पास तक ले जाकर उनके रस का आनन्द लिया और बिना खाए खिड़की के बाहर फेंक दिया।
विशेष- (1) नवाब साहब का लखनवी अंदाज साकार हो उठा है। (2) बनावटी रईसी पर कटाक्ष किया गया है। (3) वर्णनात्मक शैली तथा सरल, सुबोध भाषा का प्रयोग हुआ है।
प्रश्न-अभ्यास
प्रश्न 1. लेखक को नवाब साहब के किन हाव-भावों से महसूस हुआ कि वे उनसे बातचीत करने के लिए तनिक भी उत्सुक नहीं हैं ?
उत्तर— लेखक जैसे ही डिब्बे में पहुँचे तो उन्हें एक सफेदपोश बैठे दिखाई दिए। लेखक को देखते ही उनकी आँखों में असुविधा तथा असन्तोष का भाव दिखाई दिया। उन्होंने लेखक के प्रति किसी प्रकार की उत्सुकता नहीं दिखाई। वे चुप बैठे अपने खलल पड़ने के भाव को प्रकट करते रहे। इससे लेखक ने महसूस किया कि नवाब साहब उनसे बातचीत करने को तनिक भी उत्सुक नहीं हैं।
प्रश्न 2. नवाब साहब ने बहुत ही यत्न से खीरा काटा, नमक-मिर्च बुरका, अंततः सैंधकर ही खिड़की से बाहर फेंक दिया। उन्होंने ऐसा क्यों किया होगा? उनका ऐसा करना उनके कैसे स्वभाव को इंगित करता है?
उत्तर— नवाब साहब ने बहुत ही यत्न से खीरा काटा और उस पर नमक-मिर्च बुरका। इसके बाद उन्होंने सूंघकर खिड़की के बाहर फेंक दिया। मेरी राय में उन्होंने अपनी रईसी और बड़प्पन दिखाने के लिए, ऐसा किया। उन्होंने लेखक से खीरा खाने के लिए कहा था किन्तु लेखक ने मना कर दिया तो नवाब साहब को लगा कि यदि वे खीरा खायेंगे तो यह उनके स्तर के अनुरूप नहीं होगा। उन्होंने लेखक को प्रभावित करने के लिए खीरे को सैंधकर खिड़की के बाहर फेंका। ऐसा करना उनकी बनावटी जीवन शैली, आडम्बर, प्रदर्शन आदि की ओर इंगित करता है।
प्रश्न 3. आप इस निबन्ध को और क्या नाम देना चाहेंगे?
उत्तर— मेरी राय में इस रचना को 'नवाबी तुनक', 'नवाबी प्रदर्शन', 'झूठी शान' अथवा 'रस्सी जल गई पर ऐंठ न गई' शीर्षक दिए जा सकते हैं। नवाब साहब झूठी शान में ही यह दिखावा करते हैं।
रचना और अभिव्यक्ति
प्रश्न 1. खीरे के सम्बन्ध में नवाब साहब के व्यवहार को उनकी सनक कहा जा सकता है। आपने नवाबों की और भी सनक और शौक के बारे में पढ़ा-सुना होगा। किसी एक के बारे में लिखिए।
उत्तर— उत्तर-नवाब बड़े सनकी तथा शौकीन हुए हैं। इनकी अनेक कहानियाँ हैं। लखनऊ के बारे में ही प्रसिद्ध है कि नवाब आराम से बैठे शतरंज खेलते रहे। उन्हें बताया गया कि अंग्रेज-सेना ने आक्रमण कर दिया है। नवाब साहब ने अपने अर्दली को जूते पहनाने के लिए पुकारा। अंग्रेज सेना के डर से अर्दली भाग चुका था। नवाब साहब स्वयं जूते कैसे पहन सकते थे, बैठे रहे और अंग्रेज सेना ने बन्दी बना लिए। जूते स्वयं न पहनने की इनकी सनक न होती तो वे बन्दी होने से बच सकते थे।
प्रश्न 2. क्या सनक का कोई सकारात्मक रूप हो सकता है ? यदि हाँ तो ऐसी सनकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर— कई सनक ऐसी होती हैं जो सकारात्मक या रचनात्मक कार्य करा देती हैं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम की सानाक ने ही उन्हें महान 'मिसाइलमैन' बनाया। उनके जीवन में अनेक बाधाएँ आईं किन्तु उन्होंने अपनी सनक नहीं छोड़ी। अंततः वे सफल हुए।
अनेक नवाबों, राजाओं ने अपनी सनक से ही ऐसे काम किए जिनसे भव्य भवन तैयार हुए। आगरा का 'ताजमहल', लखनऊ का 'इमामबाड़ा' इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
वैज्ञानिक, राजनेता, विद्यार्थी आदि वे ही सफल हो पाते हैं जिनमें अपने लक्ष्य के प्रति सनक होती है। ये सभी सनक सकारात्मक होती हैं।
भाषा अध्ययन
प्रश्न 1. निम्नलिखित वाक्यों में से क्रियापद छाँटकर क्रिया-भेद भी लिखिए-
(क) एक सफेदपोश सज्जन बहुत सुविधा से पालथी मारे बैठे थे।
(ख) नवाब साहब ने संगति के लिए उत्साह नहीं दिखाया।
(ग) ठाली बैठे, कल्पना करते रहने की पुरानी आदत है।
(घ) अकेले सफर का वक्त काटने के लिए ही खीरे खरीदे होंगे।
(ङ) दोनों खीरों के सिर काटे और उन्हें गोदकर झाग निकाला।
(च) नवाब साहब ने सतृष्ण आँखों से नमक-मिर्च के संयोग से चमकती खीरे की फाँकों की ओर देखा।
(छ) नवाब साहब खीरे की तैयारी और इस्तेमाल से थककर लेट गए।
(ज) जेब से चाकू निकाला।
उत्तर—
क्रियापद - क्रिया भेद
(क) बैठे थे - अकर्मक क्रिया
(ख) दिखाया - सकर्मक क्रिया
(ग) आदत है - सकर्मक क्रिया
(घ) खरीदे होंगे - सकर्मक क्रिया
(ङ) निकाला - सकर्मक क्रिया
(च) देखा - सकर्मक क्रिया
(छ) लेट गए - अकर्मक क्रिया
(ज) निकाला - सकर्मक क्रिया
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I Hope the above information will be useful and
important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण
होगी।)
Thank you.
R F Temre
rfhindi.com
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