विद्या ददाति विनयम्

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पाठ - 3 'उपभोक्तावाद की संस्कृति' (विषय हिन्दी गद्य-खण्ड कक्षा - 9) सारांश, प्रश्नोत्तर (अभ्यास) || Path 3 Upbhoktavad ki Sanskriti

पाठ का सारांश

बदलती हुई जीवन शैली उपभोक्तावाद की नई संस्कृति को जन्म दे रही है। सभी उत्पादन आपके भोग के लिए है। इससे उपभोक्ता चरित्र भी बदल रहा है और वह उत्पाद को समर्पित होता जा रहा है। बाजार में विलासिता तथा दैनिक उपभोग की वस्तुओं की भरमार है। टूथ पेस्ट के अनेक प्रकार है, ब्रश भी बहुत तरह के है, सौन्दर्य प्रसाधन, साबुन, तेल, परफ्यूम क्या-क्या गिनाएँ, सभी के प्रकारों की गिनती करना कठिन है। ये प्रसाधन ही आदमी की हैसियत जताते हैं। महिलाएँ ही नहीं, पुरुष भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। वस्त्र और परिधानों की दुनिया भी असीमित सामग्री बाजार में है। पिछले साल का फैशन खरीदना शर्म की बात है। नई-नई चीजें, उनकी वैराइटी के कितने ही प्रकार आ गए हैं। घड़ी, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर आदि को आवश्यकता न हो तब भी खरीदना जरूरी है, हैसियत का प्रश्न है। खाना पाँच सितारा होटल में ही खायेंगे। अब तो विवाह भी पाँच सितारा होटलों में ही होने लगे हैं। अब कॉलेज, विश्वविद्यालय, अस्पताल सभी पाँच सितारा हो गए हैं। अमेरिका में तो कब्र को सजाने, फूलों व घास से सुशोभित करने के लिए भी व्यवस्था की जाने लगी है। कल भारत में भी यह होने लग सकता है। यह सब विशिष्ट वर्ग में हो रहा है किन्तु सामान्य वर्ग की भी ललचाई नजर इस ओर लगी है।

सामंती संस्कृति भी बदल गई है। सामंत भी बदल गए हैं। हम पश्चिम की मानसिक गुलामी स्वीकार कर रहे है, आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपना रहे है। हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ क्षीण हो रही हैं। विज्ञापन के सूक्ष्म तंत्र हमारी मानसिकता बदल रहे हैं। हमारे संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। बहु-विज्ञापित शीतल पेय, कूड़ा खाद्य आदि हमारे समाज, सांस्कृतिक स्वरूप को बिगाड़ रहे हैं। सभी स्वार्थ की ओर दौड़ रहे हैं। आकांक्षाओं की सीमा नहीं है। यह उपभोक्ता संस्कृति हमारी सामाजिक नींव को ही हिला रही है। यह भविष्य के लिए बड़ी चुनौती है।

प्रमुख गद्यांश की संदर्भ प्रसंग सहित व्याख्या

[1] धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। एक नयी जीवन शैली अपना वर्चस्व स्थापित कर रही है। उसके साथ आ रहा है एक नया जीवन-दर्शन-उपभोक्तावाद का दर्शन। उत्पादन बढ़ाने पर जोर है चारों ओर। यह उत्पादन आपके लिए है। आपके भोग के लिए है, आपके सुख के लिए है। सुख की व्याख्या बदल गई है। उपभोग भोग ही सुख है। एक सूक्ष्म बदलाव आया है नई स्थिति में। उत्पाद तो आपके लिए हैं, पर आप यह भूल जाते हैं कि जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'उपभोक्तावाद की संस्कृति' पाठ से अवतरित है। इसके लेखक श्यामाचरण दुबे हैं।
प्रसंग― निरंतर बदलती जा रही जीवन शैली के कारण व्यक्तियों में भी परिवर्तन आ रहा है, यही तथ्य इस गद्यांश में समझाया गया है।
व्याख्या― वर्तमान समय में हर प्रकार का बदलाव जीवन में आ रहा है। सभी कुछ परिवर्तित हो रहा है। उपभोक्तावाद की नवीन संस्कृति सर्वत्र अपना आधिपत्य स्थापित करती जा रही है। इस बदलाव के साथ ही जीवन जीने का एक प्रकार सामने आता जा रहा है यह है उपभोक्तावाद का विचार। सभी प्रकार की वस्तुओं के उत्पादन की वृद्धि पर जोर दिया जा रहा है। ये सभी उत्पादित होने वाली वस्तुएँ समाज के लिए ही हैं। इन वस्तुओं का उत्पादन समाज के उपयोग के लिए ही हो रहा है। इनका उद्देश्य आदमी को सुख पहुँचाना है। आज सुख की परिभाषा भी परिवर्तित हो गई है। वस्तुओं के उपभोग में आज सुख की अनुभूति हो रही है। आज की स्थिति में यही एक बारीक परिवर्तन हुआ है कि उत्पाद तो आदमी के उपभोग के लिए है किन्तु हालत यह है कि आज के वातावरण में आदमी उत्पादित होने वाली वस्तुओं पर अर्पित हुआ जा रहा है। विज्ञापनों ने आदमी पर इतना प्रभाव डाला है कि वह वस्तुओं के अधीन हो रहा है।
विशेष― (1) नई जीवन शैली ने व्यक्ति के चरित्र को भी परिवर्तित कर दिया है।
(2) परिणाम यह है कि वस्तुएँ ही व्यक्ति का उपभोग कर रही हैं।
(3) सरल, सुबोध किन्तु प्रभावी शैली में विषय का प्रतिपादन किया गया है।

[2] हम सांस्कृतिक अस्मिता की बात कितनी ही करें, परम्पराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। कड़वा सच यह है कि हम बौद्धिक दासता स्वीकार कर रहे हैं, पश्चिम के सांस्कृतिक उपनिवेश बन रहे हैं। हमारी नई संस्कृति अनुकरण की संस्कृति है। हम आधुनिकता के झूठे प्रतिमान अपनाते जा रहे हैं। प्रतिष्ठा की अंधी प्रतिस्पर्धा में जो अपना है उसे खोकर छद्म आधुनिकता की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। संस्कृति की नियंत्रक शक्तियों के क्षीण हो जाने के कारण हम दिग्भ्रमित हो रहे हैं। हमारा समाज ही अन्य निर्देशित होता जा रहा है। उनमें सम्मोहन की शक्ति है, वशीकरण की भी।
संदर्भ― पूर्वानुसार।
प्रसंग― इस गद्यांश में पाश्चात्य प्रभाव के कारण भारतीय परम्पराओं और संस्कृति में आ रही गिरावट के प्रति सजग करने का प्रयास किया गया है।
व्याख्या― लेखक कहते हैं कि हम भारतीय संस्कृति की विशेष पहचान की बात भले ही करते हैं किन्तु वास्तव में हमारी जो पुष्ट परम्पराएँ थीं उनमें गिरावट आई है। हमारे जो ठोस विश्वास थे वे क्षीण होते जा रहे हैं। कटु लगता है किन्तु वास्तविकता यह है कि हम मानसिक स्तर पर पाश्चात्य देशों की गुलामी स्वीकार करते जा रहे हैं। हमारा चिंतन पश्चिम से अत्यधिक प्रभावित होता जा रहा है। स्थिति यह है कि हम पाश्चात्य देशों की संस्कृति अपना कर उनके ही अनुरूप बनने का प्रयास कर रहे हैं। जिस संस्कृति को हम अपना रहे हैं उससे हमारा दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं है। यह अपनाई गई संस्कृति तो अनुकरण से आई है। उस संस्कृति को हम आधुनिक बनने के लिए अपना रहे हैं। जबकि इन सांस्कृतिक मानदण्डों में कोई भी सच्चाई नहीं है। ये पूरी तरह असत्य हैं। दूसरों की होड़ करने की अंधी दौड़ में फँसकर हमारी जो सांस्कृतिक धरोहर थी हम उसे थी गँवा रहे हैं और बनावटी आधुनिकता के फंदे में फँसते जा रहे हैं। संस्कृति को स्थिर बनाए रखने वाली शक्तियों का क्षरण हो रहा है। यही कारण है कि हम सही मार्ग से भटकते जा रहे हैं। हम जो औरों को मार्ग बताया करते थे आज हमारे निर्देशक दूसरे बनते जा रहे हैं। पश्चिम के चमत्कारवादी लोगों में मोहित करने की क्षमता है, वे दूसरों को वश में करना जानते भी हैं। उनके प्रभाव से हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।
विशेष― (1) पुष्ट सांस्कृतिक परम्पराओं वाले भारत का अपनी संस्कृति से भटककर पश्चिम की संस्कृति से प्रभावित होना चिंता का विषय है।
(2) बनावटी आधुनिकता ही भटकाव का कारण है।
(3) शुद्ध खड़ी बोली में विषय का प्रतिपादन किया गया है।

[3] समाज में वर्गों की दूरी बढ़ रही है, सामाजिक सरोकारों में कमी आ रही है। जीवन स्तर का यह बढ़ता अन्तर आक्रोश और अशान्ति को जन्म दे रहा है। जैसे-जैसे दिखावे की यह संस्कृति फैलेगी, सामाजिक अशान्ति भी बढ़ेगी। हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का ह्रास तो हो ही रहा है, हम लक्ष्य-भ्रम से भी पीड़ित हैं। विकास के विराट उद्देश्य से पीछे हट रहे हैं, हम झूठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएँ टूट रही हैं, नैतिक मानदण्ड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति केन्द्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। भोग की आकांक्षाएँ आसमान को छू रही हैं। किस बिन्दु पर रुकेगी यह दौड़?
संदर्भ― पूर्वानुसार।
प्रसंग― यहाँ पर पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभाव के प्रति चिंता प्रकट की गई हैं।
व्याख्या― लेखक पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के दुष्परिणामों के प्रति सावधान करते हुए कहते हैं कि भारत में जो सामाजिक सामंजस्य और समन्वय का भाव था वह अब समाप्त हो रहा है। विभिन्न वर्गों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। सामाजिक सम्बन्ध भी समाप्त होते जा रहे हैं। जैसे-जैसे जीवन के स्तर में बड़े-छोटे, धनी-निर्धन, उच्च-निम्न का अन्तर बढ़ता जाएगा. वैसे-वैसे ही क्रोध और अशान्ति भी बढ़ती जाएगी। यह दिखावे की संस्कृति जिस तरह बढ़ेगी उसी तरह विग्रह की बढ़ोत्तरी होगी। भारत की संस्कृति का जो स्थायित्व था वह धीरे-धीरे घट रहा है। हमारे उद्देश्य स्पष्ट नहीं हैं। प्रगति के जो महान उद्देश्य थे वे अब पीछे छूटते जा रहे हैं। हम दिखावे की संस्कृति के मोह में पड़कर क्षणिक संतुष्टि को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं। आज जो हमारी श्रेष्ठ मर्यादाएँ थीं वे समाप्त हो रही हैं। जो हमारी श्रेष्ठ चारित्रिक कसौटियाँ थी उनमें शिथिलता आ रही है। आज व्यक्तिवाद बढ़ रहा है। स्वार्थ की भावना ने परमार्थ के महान मंत्र को दबा रखा है। व्यक्ति में भोग की तीव्र इच्छाएँ हैं। यह कहना कठिन है कि ये बढ़ती हुई आकांक्षाएँ किस स्तर पर जाकर विराम लेंगी। कह नहीं सकते कि भोगवाद की यह दौड़ कहाँ जाकर थमेगी।
विशेष― (1) यहाँ पश्चिम के अनुकरण की थोथी संस्कृति के दुष्प्रभावों की ओर संकेत किया गया है।
(2) नैतिकता में आने वाली गिरावट विशेष चिंता का विषय है।
(3) साहित्यिक खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।

प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. लेखक के अनुसार जीवन में 'सुख' से क्या अभिप्राय है?
उत्तर - लेखक के अनुसार उपभोग के लिए तैयार उत्पादों का भोग करना ही सुख है।

प्रश्न 2. आज की उपभोक्तावादी संस्कृति हमारे दैनिक जीवन को किस प्रकार प्रभावित कर रही है?
उत्तर - आज की उपभोक्तावादी संस्कृति से हमारा जीवन पूरी तरह प्रभावित है। आज जीवन में प्रयोग के अनेक उत्पाद तैयार हो रहे हैं। ये सभी समाज के उपभोग के लिए तैयार हो रहे हैं। एक-एक चीज का विज्ञापन जोर-शोर से हो रहा है। ये विज्ञापन आज के व्यक्ति को अपनी गिरफ्त में ले रहे हैं। स्थिति यह हो गई है कि आदमी के भोग के लिए तैयार हुए उत्पाद ही आदमी का भोग कर रहे हैं। हम दिखावे की संस्कृति का अनुसरण कर रहे हैं। इस आधुनिकता की होड़ में फँसकर व्यक्ति दिग्भ्रमित है। इसीलिए टूथपेस्ट, ब्रश, साबुन, घड़ी, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर, आदि आवश्यक-अनावश्यक वस्तुएँ हमारे दैनिक जीवन में जगह बना रही हैं।

प्रश्न 3. लेखक ने उपभोक्ता संस्कृति को हमारे समाज के लिए चुनौती क्यों कहा है?
उत्तर - उपभोक्ता संस्कृति का विस्तार भारतीय समाज के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। प्रचार-प्रसार के कारण बाजार में आने वाली वस्तुएँ हमें आकर्षित कर रही है। हमारे जो सीमित स्रोत हैं उनका दुरुपयोग होने की पूरी पूरी संभावना है। हम उन चीजों का भी क्रद कर रहे हैं जिनकी हमें विशेष आवश्यकता नहीं है। उससे उसकी सीमित आय और अधिक प्रभावित होती है। उसका बजट गड़बड़ा जाता है। उच्च वर्ग तो वहन कर लेता है पर निम्न वर्ग संकटग्रस्त हो जाता है। इससे वर्गों में दूरियाँ बढ़ती हैं। समाज में आक्रोश और अशान्ति पैदा होती है। उस तरह हमारे समाज की नींव ही डगमगा रही है। भविष्य के लिए यह एक चुनौती है जिससे छुटकारा पाना आवश्यक है।

प्रश्न 4. आशय स्पष्ट कीजिए -
(क) जाने-अनजाने आज के माहौल में आपका चरित्र भी बदल रहा है और आप उत्पाद को समर्पित होते जा रहे हैं।
उत्तर - आज के उपभोक्तावादी समाज पर विज्ञापनों का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। व्यक्तियों में आवश्यक- अनावश्यक वस्तुओं के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। हम अपनी सुख-सुविधा मात्र के लिए ही चीजें नहीं खरीद रहे हैं अपितु अपना स्तर अपनी हैसियत दिखाने के लिए चीजें खरीदते हैं। जैसे पहले साबुन, तेल, क्रीम से काम चल जाता था किन्तु आज माउथवॉस, म्यूजिक सिस्टम, कम्प्यूटर आदि खरीदना आवश्यक हो गया है, भले इनको चलाने का ज्ञान हो, न हो। प्रतिष्ठित बनने की होड़ में सबसे कीमती चीजें खरीदने की लालसा बढ़ती जा रही है। इसी कारण से आदमी का चरित्र बदल रहा है। वह वस्तुओं के उपभोग का आनंद न लेकर वस्तुओं के प्रति अर्पित होता जा रहा है। इसलिए इन अनावश्यक इच्छाओं पर नियंत्रण करना आवश्यक है।

(ख) प्रतिष्ठा के अनेक रूप होते हैं, चाहे वे हास्यास्पद ही क्यों न हों।
उत्तर - अपनी प्रतिष्ठा दर्शाने के लिए अनेक तरीके अपनाए जाते हैं। हैसियत की होड़ मैं कभी-कभी तो ऐसे काम हो जाते हैं जिनसे करने वाला व्यक्ति मजाक का पात्र बन जाता है। यूरोप के देशों में अपनी कब्र पर हरियाली, फूल, म्यूजिक सिस्टम, फुब्बारे लगाने के लिए धन जमा करना इसी प्रकार का कार्य है। लेकिन लोग कर रहे हैं, प्रतिष्ठा जो दिखानी है। भले ही इस प्रकार प्रतिष्ठा हास्यास्पद हो सकता है। कल भारत में भी यह मानसिकता बनने लगे। इसलिए व्यक्ति को संयम से काम लेना चाहिए। स्वस्थ प्रतिष्ठा अपनाना ही श्रेयस्कर है।

रचना और अभिव्यक्ति

प्रश्न 5. कोई वस्तु हमारे लिए उपयोगी हो, न हो लेकिन टी. वी. पर विज्ञापन देखकर हम उसे खरीदने के लिए अवश्य लालायित होते हैं। क्यों?
उत्तर - आज का समय विज्ञापन का है। वस्तुएँ बाजार में बाद में आती हैं, उनका विज्ञापन पहले से ही होने लगता है। विज्ञापन भी इतने आकर्षक ढंग के होते हैं कि वस्तु के बाजार में आते ही उसकी बिक्री जोरों से शुरू जो जाती है। लोगों को उस वस्तु की आवश्यकता हो या न हो, उसका कोई उपयोग हमारे यहाँ हो सकता है या नहीं हो सकता है किन्तु हम उसकी ओर आकर्षित होते हैं, उसे खरीदना चाहते हैं। यह सब विज्ञापन कला का चमत्कार है।

प्रश्न 6. आपके अनुसार वस्तुओं को खरीदने का आधार वस्तु की गुणवत्ता होनी चाहिए या उसका विज्ञापन, तर्क देकर स्पष्ट करें।
उत्तर - किसी भी वस्तु को उपभोग के लिए खरीदा जाता है। हमारे अनुसार तो हमें वह वस्तु खरीदनी चाहिए जो गुणवत्ता की दृष्टि से अच्छी हो। प्रायः देखा गया है कि अच्छी गुणवत्ता वाली वस्तु का विज्ञापन साधारण किस्म का ही होता है। यहाँ विज्ञापन का उद्देश्य लोगों को वस्तु की जानकारी देना होता है। बाजार में आने पर वह वस्तु अपने गुणों के कारण लोकप्रिय हो जाती है। ठीक इसके विपरीत साधारण वस्तु को चमत्कार पूर्ण विज्ञापनों के द्वारा ऐसी दिखाना कि यह वस्तु बहुत अच्छे ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए होती है। यदि वस्तु में गुणवत्ता नहीं होगी तो वह बाजार में नहीं टिक पाएगी। इसलिए गुणवत्ता ही वस्तु को खरीदने का आधार होना चाहिए।

प्रश्न 7. पाठ के आधार पर आज के उपभोक्तावादी युग में पनप रही 'दिखावे की संस्कृति' पर विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर - आज जो दिखता है वही बिकता है। क्योंकि आदमी विचार करने, सोचने-समझने को तैयार नहीं है। दिखावे के पीछे हर व्यक्ति, समाज भागा चला जा रहा है। इसके कारण सामाजिक सम्बन्धों में शिथिलता आ रही है। व्यक्तियों में दूरियाँ बढ़ रही हैं। दिखावे को संस्कृति से व्यक्ति स्वार्थी हो रहा है। उसके मन में दूसरों के प्रति सम्मान, आत्मीयता आदि के भाव कम हो रहे हैं। मेरा मत यह है कि हमें दिखावे की संस्कृति से बचना चाहिए। इसे बढ़ावा देना समाज के लिए घातक है।

प्रश्न 8. आज की उपभोक्ता संस्कृति हमारे रीति-रिवाजों और त्यौहारों को किस प्रकार प्रभावित कर रही है ? अपने अनुभव के आधार पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर - आज की उपभोक्ता संस्कृति ने भारतीय समाज को बहुत प्रभावित किया है। इस प्रभाव से हमारे रीति-रिवाज, त्यौहार आदि भी प्रभावित हुए हैं। पहले घर परिवार में छोटे-बड़े के नाते के हिसाब से व्यवहार होते थे, छोटे बड़ों के पैर छूकर प्रणाम करते थे तो बड़े उन्हें आशीर्वाद, शुभकामनाएँ देते थे। त्यौहारों पर सभी मित्र, सम्बन्धी, मोहल्ले, गाँव के लोग मिलते, गीत-संगीत होते थे। आज वह सब बदल रहा है। आज एक-दूसरे से अच्छा दिखने की स्पर्द्धा बढ़ रही है। सबसे खराब यह है कि हम औरों को बढ़ता नहीं देखना चाहते हैं। परोपकार, सद्भाव, आत्मीयता कम हो रही है। आत्मकेन्द्रिकता बढ़ रही है। जिस प्रेमभाव से त्यौहारों पर लोग मिलते-बैठते थे आज उसका अभाव दिखाई पड़ रहा है। आज के सम्बन्धों में औपचारिकता बहुत अधिक आ गई है। मेरा मत है कि उपभोक्ता संस्कृति ने हमारे रीति-रिवाज तथा त्यौहारों को काफी प्रभावित किसी है।

भाषा अध्ययन

प्रश्न 9. धीरे-धीरे सब कुछ बदल रहा है। इस वाक्य में 'बदल रहा है' क्रिया है। यह क्रिया कैसे हो रही है धीरे-धीरे। अतः यहाँ धीरे-धीरे क्रिया-विशेषण है। जो शब्द क्रिया की विशेषता बताते हैं, क्रिया-विशेषण कहलाते है। जहाँ वाक्य में हमें पता चलता है क्रिया कैसे, कब, कितनी और कहाँ हो रही है। वहाँ वह शब्द क्रिया विशेषण कहलाता है।

(क) ऊपर दिए गए उदाहरण को ध्यान में रखते हुए क्रिया-विशेषण से युक्त पाँच वाक्य पाठ में से छाँटकर लिखिए।
उत्तर - क्रिया-विशेषण से युक्त पाँच वाक्य -
(1) एक छोटी सी झलक उपभोक्तावादी समाज की।
(2) आप उसे ठीक तरह चला भी न सके।
(3) लुभाने ने की जी तोड़ कोशिश में निरंतर लगी रहती है।
(4) एक सूक्ष्म बदलाव आया है।
(5) हमारा समाज भी अन्य निर्देशित होता जा रहा है।

(ख) धीरे-धीरे, जोर से, लगातार, हमेशा, आजकल, कम, ज्यादा, वहाँ उधर, बाहर इन क्रिया-विशेषण शब्दों का प्रयोग करते हुए वाक्य बनाइए।
उत्तर - क्रिया-विशेषण शब्दों से बने वाक्य-
(1) धीरे-धीरे आदमियों के स्वभाव बदले हैं।
(2) इतनी जोर से शोर मत करो।
(3) बालक सुबह से लगातार पढ़ रहे हैं।
(4) राम हमेशा चुप बैठा रहता है।
(5) आजकल बहुत गर्मी पड़ रही है।
(6) यह सामग्री श्याम के लिए कम है।
(7) ज्यादा बोलना हानिकारक है।
(8) यहाँ मेरा मकान है।
(9) उधर खेल का मैदान है।
(10) अभी बाहर जाना मना है।

(ग) नीचे दिए गए वाक्यों में से क्रिया-विशेषण शब्द छाँटकर अलग लिखिए -
(1) कल रात से निरंतर बारिश हो रही है।
(2) पेड़ पर लगे पके आम देखकर बच्चों के मुँह में पानी आ गया।
(3) रसोईघर से आती पुलाव की हल्की खुशबू से मुझे जोरों की भूख लग आई।
(4) उतना ही खाओ जितनी भूख है।
(5) विलासिता की वस्तुओं से आजकल बाजार भरा पड़ा है।
उत्तर -
क्रिया-विशेषण - विशेषण

(1) निरंतर - कल रात
(2) मुँह में पानी - पके आम
(3) भूख - हल्की खुशबू
(4) भूख - उतना जितनी
(5) आजकल - भर

कक्षा 9 क्षितिज (हिन्दी विशिष्ट) के पद्य खण्ड के पाठ, उनके सार, अभ्यास व प्रश्नोत्तर को पढ़ें।
1. पाठ 9 साखियाँ और सबद (पद) भावार्थ एवं प्रश्नोत्तर
2. पाठ 10 'वाख' भावार्थ एवं प्रश्नोत्तर
3. पाठ 11 'सवैये' भावार्थ एवं प्रश्नोत्तर
4. पाठ 12 'कैदी और कोकिला' भावार्थ एवं प्रश्नोत्तर
5. पाठ 13 'ग्रामश्री' भावार्थ एवं प्रश्नोत्तर
6. पाठ 14 चंद्र गहना से लौटती बेर केदारनाथ अग्रवाल भावार्थ एवं अभ्यास

कक्षा 9 क्षितिज (हिन्दी) के गद्य खण्ड के पाठ, उनके सारांश एवं अभ्यास
1. पाठ 1 'दो बैलों की कथा' पाठ, का सारांश, अभ्यास एवं व्याकरण
2. सम्पूर्ण कहानी- 'दो बैलों की कथा' - प्रेंमचन्द
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4. पाठ- 2 'ल्हासा की ओर' - यात्रावृत्त - राहुल सांकृत्यायन
5. पाठ- 2 'ल्हासा की ओर' (यात्रा-वृत्तान्त, लेखक- राहुल सांकृत्यायन), पाठ का सारांश, प्रश्नोत्तर, भाषा अध्ययन, रचना और अभिव्यक्ति (कक्षा 9 हिन्दी)
6. साँवले सपनों की याद– जाबिर हुसैन, प्रमुख गद्यांश एवं प्रश्नोत्तर।

I Hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
rfhindi.com

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