विद्या ददाति विनयम्

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विश्व की प्रारंभिक लिपियाँ || भारत की प्राचीन लिपियाँ || देवनागरी लिपि के वैज्ञानिक आधार

भाषा का विकास मनुष्य के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी, किन्तु इस भाषा को चिरस्थायी रूप प्रदान करने की मानव की सोच ने 'लिपि' के विकास हेतु प्रेरित किया। भारतीय धर्म ग्रंथों में 'लिपि' को ब्रह्मा की कृति माना गया है। हमारी इस विशाल धरती में अनेक भूखण्ड हैं जहाँ विभिन्न देश अवस्थित है। उन्ही क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की लेखन हेतु लिपियों का विकास हुआ। लिपि के विकास क्रम में विश्व में जो लिपियाँ विकसित हुई, उनका विवरण निम्नानुसार है-

विश्व की प्रारंभिक लिपियाँ

(1) चित्र लिपि - नाम से ही स्पष्ट है जानकारी को प्रदर्शित करने के लिए चित्रनुमा प्रतीकों का प्रयोग किया गया। मानव ने चित्रों द्वारा ही अपने मनोभावों को प्रदर्शित करने का प्रयास किया वही चित्रलिपि कहलाई। आदि काल में गुफा निवासी मानवों द्वारा पेड़ पौधे-पशु पक्षियों एवं मानवों के गुफा चित्र यही दर्शाते हैं। आज भी इस लिपि के कई उदाहरण कई स्थानों पर देखने को मिलते हैं।

(2) सूत्र लिपि - सूत्र से आशय सूत (सुतली) या धागा से है। प्रारंभ में इस लिपि द्वारा किसी बात को स्मरण दिलाने के लिए सूत्र या संकेत दिया जाता था। जैसे- सूत्र (धागे), रस्सी, पेड़ की पतली छाल आदि में किसी बात को स्मरण में रखने के लिए गाँठ लगाई जाती थी। इसी बात से मुहावरा - 'गाँठ बाँधना' का निर्माण हुआ। जिसका आशय है किसी बात को भली प्रकार से याद रखना होता है। अतः इस लिपि में किसी बात को याद रखने के लिए सुतली या धागे में गाँठ बाँधी जाती थी।

(3) प्रतीकात्मक लिपि - इस लिपि में किसी न किसी पदार्थ या वस्तु को प्रतीकात्मक रुप से भावाभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जाता है। जैसे तिब्बत एवं चीन के प्रदेशों में मुर्गी का कलेजा उसकी चर्बी के तीन टुकड़े, लाल मिर्च को भेजने का अर्थ होता था युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।

(4) भावमूलक लिपि - लिपि के विकास में विभिन्न पदार्थों के द्वारा भावों को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया। इस लिपि को भावमूलक लिपि कहा गया है। जैसे- दुःख के लिए आँसू बहाते, प्रकाश के लिए सूर्य का प्रयोग, तथा चलने के लिए पैर का प्रयोग किया जाता था।

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(5) फन्नी लिपि - इस लिपि को क्यूनी काम तिकोनी या बाणमुखी लिपि भी कहा भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें बाण जैसे- कोणा कार एवं त्रिभुजाकार रेखाओं का प्रयोग किया जाता था। यह संसार की प्राचीनतम लिखित लिपि मानी जाती है। अनुमानतः इसका विकास 400 ई.पू. हुआ था। विद्वानों का मत है इसका निर्माण सुमेरी लोगों ने किया था। पहले यह लिपि ऊपर से नीचे की ओर लिखी जाती थी, परन्तु कुछ पीछे चलकर दायें से बाँये से दायें लिखी जाने लगी।

(6) हीरोग्लाइफिक लिपि (गूढ़ाक्षरिक लिपि) - इस लिपि का संसार की प्राचीन लिपियों में महत्वपूर्ण स्थान हैं। इस लिपि में अनेक चित्रों का प्रयोग किया जाता है, परन्तु यह चित्र लिपि नहीं होती, इसमें चित्र विशेष ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है, अतएव यह चित्र लिपि का ही विकसित रुप है। जैसे यदि इस लिपि में लकड़बग्गा लिखना हो तो इसे लकड़ी और बाघ के चित्रों द्वारा प्रकट जाता था। इस लिपि को पत्थरों पर खुदी हुई पुरोहितों लिपि भी कहते हैं। इस लिपि का पत्थरों पर खुदी होने के साथ-साथ पैपाइरस पर स्याही से लिखा हुआ बहुत सा भाग मिला है।

(7) क्रीट लिपि - मिश्र के उत्तर में क्रीट द्वीप के अन्तर्गत पहले दो प्रकार की लिपियाँ प्रचलित थी। इसमें हीरोग्लाइफिक लिपि का प्रभाव था, इसकी चित्रात्मक लिपि में 135 चित्र थे। दायें से बायें और बायें से दायें लिखी जाती थी। इसकी रेखात्मक लिपि में लगभग 10 चिह्न थे, जो प्रायः बायें से दायें लिखे जाते थे।

(8) हिटटाइट लिपि - इसे हीरोग्लाइफिक लिपि भी कहते हैं, यह लिपि भी मूलतः चित्रात्मक थी, किन्तु पीछे यह भावनात्मक एवं ध्वन्यात्मक हो गई। इसमें लगभग 419 चिन्ह मिलते है। इसमें मिश्री लिपि का प्रभाव हो सकता है। यह लिपि 1500 ई. पूर्व से 100 ई. पू. तक प्रचलित थी।

(9) सिंधु घाटी की लिपि - इस लिपि का विकास सुमेरी लिपि से हुआ, क्योंकि सिंधु घाटी में 4000 ई. पूर्व सुमेरी लोग रहते थे, और उन्हीं की भाषा एवं लिपि प्रचलित थी। इस लिपि के प्राचीनतम नमूने हड़प्पा और मोहन जोदड़ों की खुदाई से प्राप्त हुए हैं।

(10) चीनी लिपि - इस लिपि का विकास मिस्त्री, सुमेरी एवं सिंधु घाटी की लिपियों के पश्चात् हुआ। इस लिपि के बारे में कहा जाता है, कि लगभग 3200 ई. पूर्व फूहे नामक एक व्यक्ति ने इस लिपि का अविष्कार किया था। कुछ लोग यह मानते हैं कि 'रसको' नामक एक प्रतिभा सम्पन्न चीनी व्यक्ति ने 2700 ई. पूर्व इस लिपि को बनाया था, जो चीनी लिपि के रुप विकसित हुई। कुछ भी हो यह तो स्पष्ट ही है, कि चीनी लिपि आरंभ से चित्र लिपि ही थी और उसमें अक्षर या वर्ण नहीं मिलते थे। जैसे सूर्य का पहले गोलाकार चित्र बनाया जाता था, परंतु पीछे गोलाकार के स्थान पर चौरस चित्र बन गया। यह लिपि जीवित होते हुए भी जटिल है, क्योंकि रेखाओं के अन्तर्गत रेखाओं और बिन्दुओं की भरमार रहती है, और इन सबको याद रखना कठिन है।

(11) ध्वनि मूलक लिपि - लिपि के विकास की अंतिम कड़ी ध्वनि मूलक लिपि है, अभी तक जितनी भी लिपियाँ विकसित हुई थी, उनमें चित्रों या चिन्हों की तो भरमार थी, किन्तु नाम के संकेत अत्यल्प थे। सिंधु घाटी की लिपि में चित्रों के साथ-साथ अक्षरों का भी रुप मिलता था। इससे सिद्ध हैं कि मानव ने जब यह देखा कि चित्रों और विविध चिन्हों से काम नहीं चलता था, तब उसका ध्यान चिन्हों या वाणी के अविष्कार की ओर गया। उसने फिर ऐसी लिपि तैयार की, जिससे चिन्ह किसी वस्तु या भाव को प्रकट नहीं करते थे और उन ध्वनि चिन्हों के आधार पर किसी वस्तु या भाव का नाम भी सुगमता से लिखा जा सकता था। इस ध्वनि सूचक लिपि का विकास भी दो रूपों में हुआ है- (i) अक्षरात्मक लिपि और (ii) वर्णात्मक लिपि।

(i) अक्षरात्मक लिपि - जिन ध्वनि मूलक लिपियों के सभी चिन्ह एक सुर से बोली जाने वाली ध्वनियों के द्योतक होते है, तथा जिनमें एक से अधिक ध्वनियाँ आ सकती है, उन्हें अक्षरात्मक लिपि कहते हैं, जैसे- देवनागरी लिपि एक प्रकार की अक्षरात्मक लिपि है, क्योंकि इसमें 'क' व्यंजन ध्वनि में "क् + अ" स्वर व्यंजन ध्वनियाँ है।

(ii) वर्णात्मक लिपि - जिस ध्वनि मूलक लिपि का प्रत्येक चिन्ह एक ही ध्वनि या वर्ण को प्रकट करता है, और प्रत्येक वर्ण की स्थिति अलग-अलग होती है उसके वर्णात्मक लिपि कहते है। यथा - रोमन लिपि इसमें प्रत्येक ध्वनि और वर्ण की स्थिति पृथक-पृथक रहती है यथा - A.P.P.L.E = APPLE

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भारत की प्राचीन लिपियाँ

(1) सिंधु घाटी की लिपि - यह लिपि सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों के बीच प्रचलित थी।

(2) खरोष्ठी लिपि - खरोष्ठी लिपि में अशोक के शिलालेख प्राप्त हुये है। इसका प्रयोग भारत के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्तों में होता था। कुछ विद्वानों का मत है, कि जो उस समय उस भू-भाग पर प्रचलित थी। कारण कि वह भाग कुछ दिनों तक ईरानियों के अधिकार में रहा और उसके संपर्क के कारण खरोष्ठी का प्रचार हुआ।

इस लिपि का निर्माण खरोष्ठ नाम के व्यक्ति ने किया था अतः इसे खरोष्ठी लिपि का जाता है। प्राचीन युग में लेखन के लिए जिन आधार पर वस्तुओं का उपयोग किया जाता था, उनमें से एक गदहे के चर्म भी थी। गदहे की खाल पर लिखी जाने पर यह खरोष्ठी कहलाई।

खरोष्ठी लिपि की विशेषताएँ

(1) यह दाँयी से बाँयी ओर की लिखी जाती है। अतएव लोगों का अनुमान है कि इसका विकास सामी भाषा वर्ग की किसी लिपि से हुआ होगा, संभवत वह अरबी ही थी।

(2) खरोष्ठी में वर्णों की संख्या मात्र 37 है जो आर्य भाषाओं की समस्त ध्वनियों को व्यक्त करने में असमर्थ है, अतएव लोगों ने उसका परित्याग कर दिया। खरोष्ठी लिपि में मात्राओं में हस्व और दीर्घ के भेद को स्वीकार नहीं किया जाता है, जो आर्य परिवार की भाषाओं में प्रमुख लक्षण है अतः इस लिपि का त्याग कर दिया।

(3) खरोष्ठी में संयुक्त ध्वनियाँ व्यक्त करने के लिए संयुक्ताक्षर नहीं है, अतएव संस्कृत जैसी संयुक्ताक्षर बहुल भाषाओं की लिपि भी किन्हीं कारणों पर इसका पंजाब राज्य तक प्रचार प्रसार हो यह जनसाधारण के लिए सहज सुलभ होगी। अतः अशोक ने इसी कारण इसे अपनाया था।

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(3) ब्राह्मी लिपि - ब्राह्मी लिपि को भारत की अत्यंत प्राचीन लिपि माना जाता है इसके नमूने पिपराव के स्तूप तथा बडली के शिलालेख से प्राप्त होते है इस लिपि के बारे में यह कहा जाता है कि ब्रह्मा द्वारा निर्मित यह लिपि ब्राह्मी लिपि कहलायी।

ब्रह्म 'वेद' एवं ज्ञान का भी नाम है, अतएव उसे सुरक्षित करने के लिए जिस लिपि का विकास हुआ, उसे ब्राह्मी लिपि कहा गया कुछ लोगों ने इसका निर्माता ब्रह्मा नामक किसी आचार्य को माना है अतः इसका नाम ब्राह्मी पड़ा है। कुछ विद्वान इसे भारतीय नहीं पश्चिम से आई हुई लिपि मानते हैं, पिपरावा और बड़ली के शिलालेखों में ब्राह्मी लिपि का पूर्ण विकास लक्षित होता है, गुप्तकाल में इस लिपि ने चरम सीमा प्राप्त कर ली थी। अशोक के शिलालेखों में इसका पूर्ण विकास लक्षित है।

(4) कुटिल लिपि - गुप्त लिपि से विकसित हुई टेढ़े मेढ़े अक्षरों के कारण यह कुटिल लिपि कहलाई।

(5) प्राचीन नागरी - इसे नंदी नागरी भी कहा जाता है, जो आठवीं नवी शताब्दी से लेकर सोलहवी शताब्दी तक भारत में प्रचलित थी। इसकी पूर्वी शाखा से बंगला लिपि का एवं पश्चिमी शाखा से महाजनी राजस्थानी, गुजराती कैथी आदि लिपियों का विकास हुआ।

(6) शारदा लिपि - इस लिपि का प्रचार प्रकार पंजाब तथा कश्मीर में हुआ जहाँ कश्मीरी टक्की और गुरु मुखी लिपि विकसित हुई।

(7) बंगला लिपि - बंगला लिपि का उद्भव प्राचीन नागरी से दशम शताब्दी के आस पास हुआ।

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ब्राह्मी की दक्षिणी शैली से लिपियों का विकास

ब्राह्मी की दक्षिणी शैली से निम्नलिखित लिपियों का विकास हुआ।

(1) पश्चिमी लिपि - दक्षिणी महाराष्ट्र तथा मैसूर के कुछ भागों में पाँचवीं शताब्दी के लगभग प्रयोग किया जाता था।

(2) मध्यप्रदेशी - मध्यप्रदेश, हैदराबाद के उत्तरी भाग एवं बुंदेलखंड के क्षेत्रों में पाँचवीं से आठवी शताब्दी तक इसका प्रचार-प्रसार हुआ।

(3) तेलगु कन्नड़ी - यह लिपि द्रविड़ भाषाओं की लिपि है।

(4) ग्रंथ लिपि - सातवीं शताब्दी से 15 वीं शताब्दी तक मद्रास में प्रचलित थी। वर्तमान में मलयालम एवं उर्दू लिपियाँ इसी से विकसित हैं।

(5) तमिल लिपि - इसका उपयोग सातवीं शताब्दी से आज तक मद्रास (चेन्नई) में पाया जाता है, तमिल भाषा के लिए इस लिपि का प्रयोग लम्बे समय से होता रहा है।

(6) कलिंगा लिपि - इसका प्रयोग कलिंग क्षेत्र में सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक होता रहा है इसमें नागरी तेलगू कन्नड़ और ग्रंथ लिपि के अनेक लक्षण पाये जाते हैं।

(7) देवनागरी लिपि - अब तक किये गये अनुसंधानों से ज्ञात होता है कि भारत की आधुनिक लिपियों का उद्गम् स्थल ब्राह्मी लिपि है। मनुष्य की युगीन आवश्यकताओं एवं परिष्कार बुद्धि के कारण ही ब्राह्मी का सर्वाधिक विकसित एवं परिमार्जित रुप देवनागरी है, यह भारत की वर्तमान 'राष्ट्रीय लिपि' भी है। संविधान द्वारा स्वीकृत है। संस्कृत ग्रंथों के मुद्रण में इसका प्रयोग हुआ है।
मराठी तथा नेपाली की यही लिपि है। उत्तर भारत की प्रचलित सभी लिपियाँ प्रायः देवनागरी का प्रकारांतर किंचित भेद ही हैं। अब तक प्राप्त शिलालेखों और खोजों के आधार पर इसका उद्भव सप्तम, अष्टम शताब्दी में स्वीकार किया गया है। इसका सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के राजा जयभट्ट के एक शिला लेख में देखा गया है, अष्टम शताब्दी में इसका प्रयोग राष्ट्रकुल नरेशों ने किया। विजयनगर व कोंकण के राज्यों में इसका व्यावहारिक प्रयोग मिलता है, डॉ. हरदेव बाहरी ने अपनी पुस्तक "हिन्दी उद्भव विकास और रुप" में इसका नाम प्राचीन नागरी बताया है। सोलहवीं शताब्दी तक इसमें सभी वर्ण रुप ले चुके थे। इसके नामकरण को लेकर कल्पना यह है कि कुछ विद्वानों का मत है कि इसका विकास गुजरात के नागर ब्राह्मणों ने किया था, अतः इसे नागरी कहा जाने लगा। कुछ का कथन है, कि देवनगर काशी में प्रचलित होने के कारण देवनागरी कहलायी।
कुछ विद्वानों का कथन है, कि देवताओं की प्रतिमा के स्थान पर सांकेतिक चिन्हों के आधार पर इसकी उपासना के दौरान त्रिकोणादि चिन्हों के बीच लिखे जाते थे, जिसका नाम देवनगर था। कालान्तर में यह देवनागरी कहलाई। देवनागरी का संस्कृत के लेखन में प्रयोग होता था अतः इसे देवनागरी कहा जाता है। कुछ विद्वानों का मत है कि प्राचीनकाल में पाटलिपुत्र को नगर तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय को देव, कहा जाता था। अतएव देवनागरी से प्रचलित यह लिपि देवनागरी कहलाई।

देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता हेतु तथ्य

(1) यह लिपि पूर्णतः वैज्ञानिक है। इसका व्याकरणिक आधार है।
(2) यहा ध्वन्यात्मक लिपि है।
(3) अक्षरात्मक, वर्णनात्मक है।
(4) जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है। ध्वनि और लिपि का पूर्ण सामंजस्य है।
(5) एक ध्वनि के लिए एक चिन्ह हैं।
(6) यह सुपाठ्य सुंदर और कलात्मक है।
(7) गत्यात्मक है आशुलेखन, तुद्रलेखन की दृष्टि से उचित व व्यावहारिक है।
(8) ध्वनियों का क्रम वैज्ञानिक हैं।
(9) छपाई एवं लिखाई का एक रूप है।
(10) बायीं से दायीं ओर लिखी जाती है।

कुछ कमियों के होते हुए भी यह एक आदर्श एवं वैज्ञानिक लिपि है। उपर्युक्त सभी लिपियों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भारत की सभी प्रचलित - अप्रचलित लिपियाँ ब्राह्मी लिपि की देन है। वर्तमान काल में रोमन और उर्दू दो विदेशी लिपियाँ है।

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I Hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
rfhindi.com

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(संबंधित जानकारी के लिए नीचे दिये गए विडियो को देखें।)
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