विद्या ददाति विनयम्

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भारत में लिपि का विकास || देवनागरी लिपि एवं इसका नामकरण || भारतीय लिपियाँ- सिन्धु घाटी लिपि, ब्राह्मी लिपि, खरोष्ठी लिपि

इसके पूर्व के लेख में हमने जानकारी दी है कि विचारों की मौखिक अभिव्यक्ति के लिए ध्वनि सबसे अनिवार्य है अतः यह "भाषा की रीढ़" है। मानव को विभिन्न जानकारियों को लम्बे समय तक स्थाई रखने की आवश्यकता महसूस हुई होगी, इस हेतु उसने मुख से निकलने वाली ध्वनियों के संकेतों अर्थात चिह्नों को बनाना सीखा होगा। ध्वनियों के लिए बनाए गए संकेत समानता के आधार पर धीरे-धीरे कर लिपि का रूप धारण किया होगा। इस तरह लिपियों का विकास हुआ होगा। इस लेख में हम हिन्दी भाषा ज्ञान को ध्यान में रखते हुए 'देवनागरी लिपि' के बारे में विस्तृत जानकारी दे रहे हैं।

लिपि का आरंभिक स्वरूप

एक अनुमान के आधार पर कहा जा सकता है कि विभिन्न जानकारियों को व्यवस्थित रखने एवं विचारों की अभिव्यक्ति के लिए लिखने की कला की उत्पत्ति भी हुई होगी। प्रारम्भ में जादू टोने के लिए खींची गई लकीरें, धार्मिक प्रतीकों के चित्र, पहचान के लिए बनाए गए घड़ों आदि के चित्र, किसी वस्तु को सजाने के लिए बनाए गए चित्र आदि लिपि के आरम्भिक रूप रहे होंगे।

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3. भाषा के विभिन्न रूप - बोली, भाषा, विभाषा, उप-भाषा
4. मानक भाषा क्या है? मानक भाषा के तत्व, शैलियाँ एवं विशेषताएँ

डॉ. भोलानाथ तिवारी ने विभिन्न उपलब्ध लिपियों का अध्ययन करके लिपि विकास का ऐतिहासिक क्रम निम्न प्रकार प्रस्तुत किया है-
(1) चित्र लिपि
(2) सूत्र लिपि
(3) प्रतीकात्मक
(4) भावमूलक लिपि
(5) भाव-ध्वनि मूलक लिपि
(6) ध्वनि मूलक लिपि

भारत में लिपि का विकास

विद्वानों के मतानुसार भारत में लेखन कला का विकास ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुआ। ध्वनि मूलक लिपि 'लिपि-विकास' की चरम परिणति मानी जा सकती है। इस लिपि के 'अक्षरात्मक लिपि' तथा 'वर्णनात्मक लिपि' रूप पाए जाते हैं। 'नागरी लिपि' और 'रोमन लिपि' क्रमशः इनके उदाहरण हैं। प्राचीन भारत में तीन लिपियों की जानकारी मिलती है।
(i) सिन्धु घाटी लिपि
(ii) ब्राह्मी लिपि
(iii) खरोष्ठी लिपि

ध्वनि एवं वर्णमाला से संबंधित इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।
1. ध्वनि का अर्थ, परिभाषा, लक्षण, महत्व, ध्वनि शिक्षण के उद्देश्य ,भाषायी ध्वनियाँ
2. वाणी - यन्त्र (मुख के अवयव) के प्रकार- ध्वनि यन्त्र (वाक्-यन्त्र) के मुख में स्थान
3. हिन्दी भाषा में स्वर और व्यन्जन || स्वर एवं व्यन्जनों के प्रकार, इनकी संख्या एवं इनमें अन्तर

'सिन्धु घाटी लिपि' का प्रचार बहुत कम समय तक रहा। अतः प्राचीन काल में भारत 'ब्राह्मी लिपि' और 'खरोष्ठी लिपि' ये दो लिपियाँ प्रचलित थीं। इनमें 'ब्राह्मी लिपि' विशेष महत्वपूर्ण है एक प्रकार से उसको 'राष्ट्रीय लिपि' का स्थान प्राप्त था। इसका प्रचार पश्चिमोत्तर प्रदेश के छोड़कर शेष भारत में था। पश्चिमोत्तर प्रदेश में 'खरोष्ठी लिपि' का प्रचार था और वह आधुनिक 'उर्दू की लिपि' की तरह दाहिनी ओर से बाई ओर की लिखी जाती थी। विद्वानों के मतानुसार 'खरोष्ठी लिपि' 'आर्य लिपि' नहीं है। इसका सम्बन्ध विदेशी 'क्षेमेटिक अरामेइक लिपि' से है।

'ब्राह्मी लिपि' 'देवनागरी लिपि' की भाँति बाई ओर से दाहिनी ओर लिखी जाती थी। इसका प्रचार लगभग 350 ई. तक रहा। ब्राह्मी लिपि तीन रूपों में विकसित हुई थी-
(1) शारदा लिपि
(ii) कुटिल लिपि
(iii) नागरी लिपि

ये तीनों लिपियाँ आधुनिक उत्तर भारतीय लिपियों की जननी हैं।

हिन्दी व्याकरण के इन 👇 प्रकरणों को भी पढ़िए।।
1. व्याकरण क्या है
2. वर्ण क्या हैं वर्णोंकी संख्या
3. वर्ण और अक्षर में अन्तर
4. स्वर के प्रकार
5. व्यंजनों के प्रकार-अयोगवाह एवं द्विगुण व्यंजन
6. व्यंजनों का वर्गीकरण
7. अंग्रेजी वर्णमाला की सूक्ष्म जानकारी

देवनागरी लिपि - एक परिचय

'देवनागरी लिपि' 'ब्राह्मी लिपि' से उत्पन्न हुई। उत्तर भारत में इसका प्रयोग 9 वीं शताब्दी से क्रमबद्ध रूप में पाया जाता है। दक्षिण भारत में यह नन्दि-नागरी नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान नागरी अंक भी ब्राह्मी अंकों से विकसित हुए हैं। नागरी लिपि में सबसे प्राचीन लेख 7 वीं एवं 8 वीं शताब्दी के पाए गए हैं। यह इसका आरम्भिक रूप है। 10 वीं शताब्दी से लेकर 11 वीं शताब्दी तक इसका विकास हुआ है। उत्तरी प्राचीन भारत में इसका बोलबाला था। गुजरात, महाराष्ट्र तथा राजस्थान में इस लिपि में का ताड़पत्र पर लिखे हुए अनेक प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं। 15 वीं शताब्दी से लगातार अब तक देवनागरी लिपि का रूप प्रायः स्थिर रहा है।

देवनागरी लिपि का नामकरण

'हिन्दी लिपि', 'नागरी लिपि' तथा 'देवनागरी लिपि' ये तीनों नाम एक ही लिपि के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं। विद्वानों ने इसके नामकरण के कारणों की विभिन्न प्रकार से कल्पना की है। जैसे -
(1) 'नागर' ब्राह्मणों द्वारा इस प्रकार की लिपि का प्रयोग करने के कारण 'नागरी' शब्द इस लिपि में आया होगा।
(2) यह लिपि 'नगर' से सम्बद्ध होने के कारण इसका नामकरण 'नागरी' हुआ होगा।
(3) नाम लिपि से सम्बद्ध होने के कारण।
(4) 'नागर' अप्रभंश से उत्पत्ति के कारण।
(5) यह लिपि उत्तर भारत के 'काशी' में प्रचलित होने के कारण देवनागरी नामकरण हुआ होगा क्योंकि काशी को 'देवनगर' (देवताओं की नगरी) भी कहते हैं।
(6) 'देवनागर' से साम्यता होने के कारण। इस मत के प्रमुख प्रतिपादक हैं- अ. श्रीराम शास्त्री का कहना है कि तन्त्र विद्यायें प्रयुक्त देवनागर चिह्न विशेषरूप से देवनागरी का मूल आधार हैं।
ब. श्री ओझा जी का भी कथन है कि तान्त्रिक समय में 'नागरी लिपि' नाम प्रचलित था।)
(7) 'नन्दिनगर' से सम्बन्धित होने के कारण इस लिपि ने 'देवनागरी' नाम प्राप्त किया होगा।
(8) इन सबके अलावा इस लिपि का 'देवभाषा' से सम्बद्ध होने के कारण इसका नामकरण देवनागरी हुआ होगा।

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6. विराम चिह्न और उनके उपयोग
7. अलंकार और इसके प्रकार

संस्कृत देववाणी कही गई तथा पण्डितों, चतुरजन (नागरिकों) की भाषा रही है। उक्त लिपि को देवनागरी कहना सर्वथा उपयुक्त था। अतः निष्कर्ष यही है कि 'देवनागरी लिपि' का प्रयोग पण्डित वर्ग द्वारा संस्कृत लेखन के लिए किया जाता था। देवनागरी लिपि 'अर्द्ध अक्षरात्मक लिपि' मानी जाती है। इसमें कुल 48 चिह्न हैं। इन को स्वर और व्यंजन दो भागों में विभक्त किया गया है। इसमें अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी भी कुछ चिह्न लिए गये हैं।

नागरी लिपि का विकास

10 वीं शताब्दी में प्रचलित नागरी लिपि के अनेक वर्ण आधुनिक वर्णों से बहुत हटकर हैं।
गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार ईसवी सन् की 17 वीं शताब्दी में उत्तरी भारत नागरी लिपि में कुटिल लिपि की ञ, घ, प, स, य, व और के सिर दो अंशों विभक्त मिलते हैं, परन्तु 11 वीं शताब्दी में वे दोनों अंश मिलकर सिर की एक लकीर बन जाते हैं और प्रत्येक अक्षर का सिर उतना लम्बा रहता है जितनी अक्षर की चौड़ाई होती है। 11 वीं शताब्दी की नागरी लिपि वर्तमान नागरी लिपि से मिलती जुलती है और 12 वीं शताब्दी से वह वर्तमान लिपि बन जाती है। 12 वीं शताब्दी से लगातार अब तक वह प्रायः अपरिवर्तित रूप में चली आ रही है।

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7. अनेक शब्दों के लिए एक शब्द (समग्र शब्द) क्या है उदाहरण
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10. हिन्दी शब्द- पूर्ण पुनरुक्त शब्द, अपूर्ण पुनरुक्त शब्द, प्रतिध्वन्यात्मक शब्द, भिन्नार्थक शब्द
11. द्विरुक्ति शब्द क्या हैं? द्विरुक्ति शब्दों के प्रकार

देवनागरी लिपि के वर्णों के क्रमिक विकास में प्रारम्भिक रूप 'ब्राह्मी लिपि' के हैं, इसके बाद विकास क्रम में गुप्त एवं 'कुटिल लिपियों' का योगदान है. इस प्रकार ब्राह्मी लिपि ही 'गुप्त' एवं 'कुटिल' लिपियों के माध्यम से आधुनिक देवनागरी लिपि के रूप में परिणत हुई है।

देवनागरी लिपि में होने वाले परिवर्तन

देवनागरी लिपि में आवश्यकतानुसार समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने निम्नलिखित पाँच बातों का उल्लेख किया है-
(1) नागरी लिपि क्रमशः जटिलता से सरलता की ओर अग्रसर हुई है।
(2) इसमें धीरे-धीरे शिरोरेखा का प्रयोग कम होता जा रहा है।
(3) विराम चिह्नों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। इसमें अन्य भाषाओं से विराम चिह्न ग्रहण किए गए हैं और लिए जा रहे हैं, जैसे—(,), (!), (-) आदि।
(4) पञ्चम अनुनासिक के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग बढ़ता जा रहा है, जैसे- गङ्गा कङ्कण आदि को गंगा, कंकण के रूप में लिखा जाने लगा है।

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नागरी लिपि की विशेषताएँ

हिन्दी एक सशक्त एवं प्रगतिशील भाषा है। इसने संस्कृत की लिपि, वर्णमाला और उसके उच्चारण को अपनाया है। इसमें अधिकांशतः संस्कृत की ध्वनियों को ग्रहण किया है।
डॉ. उदय नारायण तिवारी के अनुसार- "चूंकि देवभाषा संस्कृत के लिखने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता था, अतः इसे देवनागरी नाम से अभिहित किया गया।"

विभिन्न भारतीय लिपियों में देवनागरी लिपि का स्थान

हिन्दी प्रदेश में कई लिपियाँ प्रयुक्त होती हैं-
(1) महाजनी (मुड़िया) लिपि
(2) बिहारी अथवा कैथी लिपि
(3) मैथिली लिपि

कैथी लिपि के तीन स्थाीय रूप पाए जाते हैं-
(i) तिरहुती कैथी लिपि
(ii) मगही कैथी लिपि
(iii) भोजपुरी कैथी लिपि।

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इन लिपियों के अतिरिक्त -
(i) फारसी-लिपि
(ii) सिन्धी लिपि
(iii) गुरुमुखी लिपि
(iv) बंगला लिपि
(v) टाकरी
(vi) चमेआली
(vii) जौनसारी
(viii) कुल्लु
(ix) रोमन लिपियाँ
भी प्रयुक्त होती हैं।

महाजनी एवं बिहारी (तथा उसके उपभेद) लिपियों का विकास देवनागरी लिपि से ही हुआ है। मैथिली लिपि बंगला के ज्यादातर समीप है। कतिपय विद्वानों के मतानुसार उसका विकास प्राचीन नागरी लिपि के पूर्वी रूप से ही हुआ है। उर्दू वस्तुतः 'अरबी-फारसी' की लिपि है।

'सिन्धी' और 'गुरुमुखी' का प्रयोग भारत विभाजन के बाद शरणार्थियों द्वारा किया जाने लगा था। इसका प्रयोग बहुत ही सीमित है इनकी उत्पत्ति 'लंडा लिपि' से हुई है। बंगला लिपि का प्रयोग अत्यन्त सीमित रूप में कतिपय बंगाली परिवारों एवं संस्थाओं में होता है। यह लिपि भी पुरानी 'नागरी लिपि' की पूर्वी शैली से उत्पन्न हुई है। टाकरी, चमेआली, जौनसारी तथा कुल्लू लिपियाँ अत्यन्त कठिन लिपियाँ हैं। ये पर्वतीय भागों के निवासियों द्वारा स्थानीय रूप में प्रयुक्त होती हैं। इनकी उत्पत्ति शारदा लिपि से हुई है।

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अंत में कहा जा सकता है कि रोमन लिपि को छोड़कर समस्त लिपियाँ भारतीय लिपियाँ हैं और इन सभी का मूल आधार प्राचीन भारतीय लिपि 'ब्राह्मी लिपि' है। देवनागरी लिपि का प्रयोग अत्यन्त व्यापक एवं विस्तृत क्षेत्र में होता है। अन्य लिपियों का प्रयोग अत्यन्त सीमित एवं स्थानीय रूप में होता है।

देवनागरी लिपि की श्रेष्ठता का कारण

(1) भारतवर्ष के अधिकांश ग्रन्थ, पत्र-पत्रिकाएँ, समाचार आदि देवनागरी लिपि में ही प्रकाशित होते हैं। वही हमारी राष्ट्रीय लिपि के रूप में स्वीकृत है। देवनागरी लिपि की लोकप्रियता का कारण है उसकी वैज्ञानिकता तथा अन्य समस्त लिपियों की अपेक्षा उसकी श्रेष्ठता, भाषा विज्ञान के विद्वानों के मतानुसार देवनागरी लिपि संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। इसमें संसार की लगभग समस्त भाषाओं की ध्वनियों को उच्चरित करने की सामर्थ्य है।

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(2) नागरी लिपि व्यवस्थित रूप में निर्मित लिपि है। इसकी वर्णमाला में वर्णक्रम को अत्यन्त वैज्ञानिक रीति में संजोया गया है।

(3) इसमें ध्वनि प्रतीकों स्वर और व्यन्जन की क्रमबद्धता सर्वथा शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक है। स्वरों में हस्व-दीर्घ के लिए अलग-अलग मात्राएँ हैं और स्वरों की मात्राएँ निश्चित हैं।

(4) उच्चारण के स्थान के अनुसार व्यन्जनों के वर्ग निर्धारित किए गए हैं तथा उसी क्रम में उसकी व्यवस्था की गई है। जैसे-कण्ठ्य, तालव्य, मूर्द्धन्य, दन्त्य और ओष्ठ्य। इस प्रकार का वर्गीकरण अत्यन्त वैज्ञानिक है। इस तरह का वर्गीकरण अन्य लिपियों में नहीं पाया जाता है।

(5) ध्वनियों के दोनों रूप- स्वर और व्यंजन पृथक-पृथक हैं। रोमन, अरबी, फारसी लिपियों में दोनों को मिला दिया गया है।

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(6) ह्रस्व और दीर्घ स्वरों के रूप पृथक् हैं, जैसे- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ आदि।

(7) अल्प प्राण और महाप्राण ध्वनियों के लिए अलग-अलग लिपि चिह्न हैं, जैसे- 'क' अल्प प्राण ध्वनि है और 'ख' महाप्राण ध्वनि है। परन्तु रोमन लिपि में 'ख' के लिए स्वतन्त्र लिपि चिह्न नहीं है। 'ख' को K में h मिलाकर Kha रूप में लिखा जाता है।

(8) यह एक व्यावहारिक एवं गत्यात्मक लिपि है। इसमें पहले जिन ध्वनियों के लिए। चिह्न नहीं थे, उन्हें बाद में बना लिया गया, जैसे—अॅ, ऍ आदि।

(9) इसमें चार संयुक्त व्यंजन है—'क्ष', 'त्र', 'ज्ञ' और 'श्र' इनके अतिरिक्त कुछ अन्य आवश्यक व्यन्जन भी गढ़ लिए गए हैं। जैसे - ड़ ढ़।

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(10) प्रत्येक ध्वनि के लिए नागरी लिपि में एक पृथक चिह्न है, जो बोला जाता है, वही लिखा भी जाता है। इसमें अंग्रेजी व उर्दू की भाँति Spelling और हिज्जे (वर्तनी) याद करने की आवश्यकता नहीं होती है।

(11) नागरी लिपि में वर्णों के नाम उच्चारण के अनुरूप हैं, परन्तु अन्य लिपियों में बात ऐसी नहीं है

(12) प्रत्येक ध्वनि के लिए पृथक चिह्न होने के साथ इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें एक ध्वनि के लिए एक ही चिह्न है। अन्य लिपियों में एक ध्वनि के लिए एक से अधिक चिह्न प्रयुक्त किए जाते हैं, जैसे- (i) रोमन लिपि में 'क' ध्वनि के लिए C (Cat कैट) और K (Kin किन), (Quote कोट) हैं। (ii) देवनागरी लिपि में एक लिपि चिह्न से दो ध्वनियों का बोध नहीं होता, जैसे - 'U' से 'अ' और 'उ' – But (बट), Put (पुट)। उर्दू लिपि में भी ऐसा ही है। इसके अलावा नागरी लिपि में केवल उच्चारित ध्वनियाँ लिखी जाती हैं, अनुच्चरित नहीं, जैसे- Walk, Talk में 'l' की ध्वनि अनुच्चरित (Silent) है, Phthisis में Ph, Psychology में P अनुच्चरित है। हिज्जे या Spelling का रटना अमनोवैज्ञानिक है और शिक्षा शास्त्र के प्रतिकूल है। देवनागरी लिपि के संदर्भ में इस प्रकार की कठिनाइयों का प्रश्न ही नहीं उठता है।

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(13) देवनागरी लिपि में मात्रा सम्बन्धी जो नियम है, उसके अनुसार स्वर व्यन्जन में योग उपस्थित करने वाला मनोवैज्ञानिक नियम अन्यत्र दुर्लभ है। उदाहरणार्थ - अरबी-फारसी में जबर, जेर, पेश का विधान है, परन्तु इनका प्रयोग केवल आरम्भिक अवस्था में ही किया जाता है। बाद में लोग इन चिह्नों को लगाना बन्द कर देते हैं और अन्दाज से पढ़ने की स्थिति आ जाती है। पाठक 'अ', 'इ', 'उ' की मात्रा अपनी समझ के अनुसार पढ़ने को स्वतन्त्र रहता है, जैसे- 'अजमेर गए' को 'आज मर गये' तथा 'सुरमा दानी चार' को 'सिर में देना चार', पढ़ने को स्वतन्त्र रहता है। रोमन लिपि में भी वह Chak को 'चक', 'चाक', 'चेक', 'चैक' आदि पढ़ने को स्वतन्त्र रहता है, परन्तु देवनागरी लिपि में इस प्रकार से मनमानी करने अथवा भूल करने का अवसर नहीं रहता है।

(14) व्यन्जनों के संकेत भी नागरी लिपि में सर्वथा पृथक हैं। उर्दू लिपि में एक रूप या चिह्न में नुक्ता (़ बिन्दी) लगाकर एक से अधिक प्रकार के संकेतों का उच्चारण किया जाता है। रोमन लिपि में कई ध्वनि संकेतों के योग से एक ध्वनि बनती है जैसे- Ch, Th आदि। देवनागरी लिपि में इस प्रकार के जोड़ लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

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देवनागरी लिपि की विशेषताओं को लक्ष्य करके डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कहा था -
"क्यों न भारत की सभी भाषाएँ एक ही लिपि (देवनागरी) अपनाएँ।"
इस सन्दर्भ में डॉ. उदय नारायण तिवारी का यह कथन द्रष्टव्य है- "अपनी सर्वांगपूर्णता से नागरी लिपि भारत की सर्वाधिक प्रचलित एवं स्थापित लिपि है।" भारत के संविधान इसको राजभाषा लिपि के स्थान पर आसीन किया गया है, संस्कृत लिखने के लिए प्रयुक्त होने के कारण यह अखिल भारतीय लिपि है। पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, राजस्थानी और मध्यप्रदेश एवं हिमाचल प्रदेश की बोलियों के अतिरिक्त बिहार की बोलियाँ तथा वहाँ की अन्य भाषाओं— मुण्डा एवं सन्थाली लिखने के लिए 'नागरी लिपि' प्रयुक्त की जा रही है।

इस तरह देखा जाए तो देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। इस लिपि में जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है। जबकि ऐसी व्यवस्था विश्व की अन्य लिपियों में नहीं है।

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5. अलंकार – ब्याज-स्तुति, ब्याज-निन्दा, विशेषोक्ति, पुनरुक्ति प्रकाश, मानवीकरण, यमक, श्लेष

I Hope the above information will be useful and important.
(आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।)
Thank you.
R F Temre
rfhindi.com

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