प्रमुख 22 ध्वनि यन्त्र || स्वर तन्त्रियों के मुख्य कार्य || ध्वनि की उत्पत्ति
वैसे तो ध्वनि की उत्पत्ति में मुख्यतः चार अवयव कार्य करते हैं -
(क) काकल
(ख) कण्ठ-बिल
(ग) मुख और
(घ) नासिका
उक्त चार अवयवों के माध्यम से ही मानव मुख से विभिन्न प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती हैं। उक्त वाग्यन्त्रों के अलावा विभिन्न प्रकार की ध्वनियों की उत्पत्ति के लिए मुख के और भी अङ्ग जिन्हें मुखाङ्ग / यन्त्र / ध्वनि-यन्त्र/ उच्चारण अवयव / वाग्यन्त्र या वाक्-यंत्र / मुख-अवयव / वाणी-यन्त्र आदि नामों से जाना जाता है।
वाग्यन्त्र या ध्वनि-यन्त्र की जानकारी ओष्ठ से लेकर गले के कौवे से नीचे तक के भाग की प्राप्त करेंगे। भाषा विदों ने इसे विभिन्न भागों में बाँटकर इनका वर्णन किया है। वाणी-यन्त्रों विवरण एवं सूची नीचे दी गई है।
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(I) उवालि जिह्वा (Pharynx) - इसके अन्तर्गत गलबिल, कण्ठ, कण्ठ मार्ग सम्मिलित होते हैं।
(II) अन्न नलिका (Gullet)
(III) स्वर यन्त्र (Lyrynx) - इसके अन्तर्गत कण्ठ-पिटक, ध्वनि-यन्त्र सम्मिलित है।
(IV) स्वर-यन्त्र, मुख (Glottis)- इसमें काकल प्रमुखतः है।
(V) स्वर तन्त्री (Vocal Chord) अर्थात ध्वनि तन्त्री
(VI) स्वर-यन्त्र, मुख आवरण (Epiglottis) - इसके अन्तर्गत अभिकाकल, स्वर यन्त्रावरण आते हैं।
(VII) नासिका-विवर (Nasal-Cavity)
(VIII) मुख-विवर (Mouth Cavity)
(IX) अलि जिह्वा (Ovula)- इसके अन्तर्गत कौआ, घण्टी, शुंडिका सम्मिलित हैं।
(X) कण्ठ (Guttur)
(XI) कोमल तालु (Soft Palate)
(XII) मुर्द्धा (Cerebrum)
(XIII) कठोर तालु (Hard Palate)
(XIV) वर्क्स (Alueola)
(XV) दाँत (Teeth)
(XVI) ओष्ठ (Lips)
(XVII) जिह्वामध्य (Middle of the Tongue)
(XVIII) जिह्वानीक (Tip of the Tongue)
(XIX) जिह्वाग्र (Front of the Tongue, जिवाफलक)
(XX) जिह्वा (Tongue)
(XXI) जिह्वापश्च (Back of the Tongue)
(XXII) जिह्वामूल (Root of the Tongue)।
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ध्वनि की उत्पत्ति
ध्वनि की उत्पत्ति उस समय होती है जब वायु फेफड़ों से चलकर श्वास नलिका द्वारा कण्ठ-पिटक से बाहर निकलती है, उस समय स्वर-तन्त्रियों के व्यापार में शब्द या ध्वनि की उत्पत्ति होती है। यदि हम साधारण बोलचाल में कहें तो कण्ठ अथवा गले से ध्वनि निकलती है। वायु श्वास नलिका द्वारा कण्ठ-पिटक में आती है और यहीं पर वह ध्वनि का रूप धारण कर लेती है।
जिह्वा और कण्ठ, इन दोनों अवयवों के कारण कण्ठ बिल में जो विभिन्न प्रकार के ध्वनि विकार होते हैं, वे ही तरह-तरह की ध्वनियों को जन्म देते हैं।
कण्ठ-विल में से निकालकर श्वास या तो नासिका विवर में जाती है अथवा मुख विवर में जाती है। जब कण्ठ की घण्टी अथवा कौवा नासिका विवर को बन्द कर लेता है तब श्वास मुख विवर में होकर आती है और वह अनुनासिक अथवा शुद्ध ध्वनि कहलाती है, किन्तु जब नासिका और मुख दोनों के मार्ग खुले रहते हैं तब सानुनासिक ध्वनि उत्पन्न होती है। ध्वनि मुख-विवर में आकर ही प्रायः अपना वास्तविक स्वरूप धारण करती है।
स्वर तन्त्रियों के मुख्य कार्य
(अ) स्वर तन्त्रियाँ साधारणतः श्वास लेते समय ये खुली रहती हैं।
(ब) ये स्वर तन्त्रियाँ कभी-कभी परस्पर इतनी मिल जाती है कि श्वास का आना ही रुक जाता है।
(स) कभी-कभी इन दोनों स्वर तन्त्रियों के बीच में से श्वास इस प्रकार निकल जाती है कि कम्पन नहीं होता, केवल फुसफुसाहट होकर रह जाती है।
(द) ये स्वर तन्त्रियाँ कभी- कभी दृढ़ और कभी-कभी शिथिल हो जाती हैं। इसी से स्वर कभी ऊँचा और कभी नीचा होते रहता है।
(इ) कभी ये स्वर तन्त्रियाँ बहुत ही कम खुलती हैं जिससे बीच में से महाप्राण वायु निकल तो जाती है, परन्तु इस कारण ये तन्त्रियाँ स्वयं तार के समान झनझना उठती हैं।
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R F Temre
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