
पाठ 1 नमक का दारोगा (प्रेमचंद) 11th हिंदी (आरोह भाग 1 गद्य खंड) || पाठ एवं पाठ का सारांश एवं संपूर्ण अभ्यास (प्रश्न उत्तर)
संपूर्ण पाठ-परिचंय -
जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। यह वह समय था, जव अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फ़ारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदां लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरहकथा समाप्त करके मजनू और फ़रहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्त्व की बातें समझते हुए रोज़गार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे-बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पहुँ। अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ। इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरज़वाले आंदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज़ को दाँव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो। यह मेरी जन्मभर की कमाई है।
इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खड़े हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलंबन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था। वृद्ध मुंशीजी को सुख-संवाद मिला, तो फूले न समाए। महाजन कुछ नरम पड़े, कलवार की आशालता लहलहाई। पड़ोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।
जाड़े के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आए अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोड़े समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफ़सर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे। नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगाजी किवाड़ बंद किए मीठी नींद से सो रहे थे। अचानक आँख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गड़ाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया। उठ बैठे। इतनी रात गए गाड़ियाँ क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोड़ा बढ़ाए हुए पुल पर आ पहुँचे। गाड़ियों की एक लंबी कतार पुल के पार जाती दिखी। डाँटकर पूछा-किसकी गाड़ियाँ हैं?
थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों में कुछ काना-फूसी हुई, तब आगे वाले ने कहा-पंडित अलोपीदीन की !
'कौन पंडित अलोपीदीन ?'
'दातागंज के।'
मुंशी वंशीधर चौंके। पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपये का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बड़े कौन ऐसे थे, जो उनके ऋणी न हों। व्यापार भी बड़ा लंबा-चौड़ा था। बड़े चलते-पुरज़े आदमी थे। अंगरेज़ अफ़सर उनके इलाके में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।
मुंशीजी ने पूछा-गाड़ियाँ कहाँ जाएँगी? उत्तर मिला-कानपुर। लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढ़ा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह ज़ोर से बोले-क्या तुम सब गूँगे हो गए हो? हम पूछते हैं, इनमें क्या लदा है?
जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोड़े को एक गाड़ी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के ढेले थे।
पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाड़ीवानों ने घबराए हुए आकर जगाया और बोले-महाराज! दारोगा ने गाड़ियाँ रोक दी हैं और घाट पर खड़े आपको बुलाते हैं।
पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले-चलो, हम आते हैं। यह कहकर पंडितजी ने बड़ी निश्चितता से पान के बीड़े लगाकर खाए। फिर लिहाफ़ ओढ़े हुए दारोगा के पास आकर बोले-बाबूजी, आशीर्वाद ! कहिए, हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ कि गाड़ियाँ रोक दी गईं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा दृष्टि रहनी चाहिए।
वंशीधर रुखाई से बोले-सरकारी हुक्म !
पंडित अलोपीदीन ने हँसकर कहा-हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढ़ावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारी की नयी उमंग थी। कड़ककर बोले-हम उन नमकहरामों में नहीं हैं जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपका कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुरसत नहीं है। जमादार बदलू सिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूं।
पंडित अलोपीदीन स्तंभित हो गए। गाड़ीवानों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को यह ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ीं। बदलू सिंह आगे बढ़ा किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड़ सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया यह अभी उदंड लड़का है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पड़ा। अल्हड़ है, झिझकता है। बहुत दीन-भाव से बोले-बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोड़े ही हैं।
वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा-हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।
अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे से खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन ऐश्वर्य को कड़ी चोट लगी। किंतु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले-लाला जी, एक हजार के नोट बाबू साहब को भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।
वंशीधर ने गरम होकर कहा-एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।
धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुंझलाया।
अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रहं, और पंद्रह से बीस हजार तक नौत्रत पहुँची, किंतु धर्म अलौकिक वीरता के साथ इस बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खड़ा था।
अलोपीदीन निराश होकर बोले-अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।
वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलू सिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढ़ा। पंडित घबराकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अत्यंत दीनता से बोले बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने को तैयार हूँ।
'असंभव बात है।'
'तीस हजार पर?'
'किसी तरह भी संभव नहीं?'
'क्या चालीस हजार पर भी नहीं?'
'चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असंभव है। बदलू सिंह, इस आदमी को अभी हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।'
धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकड़ियाँ लिए हुए अपनी तरफ़ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद एकाएक मूर्छित होकर गिर पड़े।
दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए, वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दूध के नाम से वेचनेवाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरनेवाले अधिकारी वर्ग, रेल में विना टिकट सफ़र करनेवाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज़ बनानेवाले सेठ और साहूकार, यह सब के सब देवताओं की भाँति गरदनें चला रहे थे। जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकड़ियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभभरे, लज्जा से गरदन झुकाए अदालत की तरफ़ चले, तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित् आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा।
किंतु अदालत में पहुँचने की देर थी। पंडित अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना माल के गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ़ से दौड़े। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करनेवाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डाँवाडोल।
यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ दीख पड़ता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहाँ पक्षपात हो. वहाँ न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पंडित अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बड़े भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोड़े लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पड़ा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम से सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक से मुकदमे की बढ़ी हुई नमकहलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।
वकीलों ने यह फ़ैसला सुना और उछल पड़े। पंडित अलोपीदीन मुसकुराते हुए बाहर निकले। स्वजन-बांधवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींद तक हिला दी। जब वंशीधर बाहर निकले तो चारा ओर से उनके ऊपर व्यंग्यवाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किंतु इस समय एक-एक कटुवाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्वलित कर रहा था। कदाचित् इस मुकदमे में सफ़ल होकर वह इस तरह अकड़ते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वता, लंबी-चौड़ी उपाधियाँ, बड़ी-बड़ी दाढ़ियाँ और ढीले चोंगे एक भी सच्चे आदर के पात्र नहीं हैं।
वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढ़े मुंशीजी तो पहले ही से कुड़-बुड़ा रहे थे कि चलते-चलते इस लड़के को समझाया था लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढ़ापे में भगत बनकर बैठें और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह ! हमने भी तो नौकरी की है, और कोई ओहदेदार नहीं थे, लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे अँधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दीया जलाएँगे। खेद ऐसी समझ पर ! पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया। इसके थोड़े ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढ़े पिताजी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड़ लूँ। बहुत देर तक पछता पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाते तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृद्धा माता को भी दुःख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गई। पत्नी ने तो कई दिनों तक सीधे मुँह से बात भी नहीं की।
इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। संध्या का समय था। बूढ़े मुंशीजी बैठे राम-नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिएँ बैलों की जोड़ी, उनकी गरदनों में नीले धागे, सीगें पीतल से जड़ी हुई। कई नौकर लाठियाँ कंधों पर रखे साथ थे। मुंशीजी अगवानी को दौड़े। देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे, हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आए। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन-सा मुँह दिखावें, मुँह में तो कालिख लगी हुई है। किंतु क्या करें, लड़का अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्यों मुँह छिपाना पड़ता? ईश्वर निस्संतान चाहे रखे, पर ऐसी संतान न दे।
अलोपीदीन ने कहा-नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।
मुंशीजी ने चकित होकर कहा-ऐसी संतान को और क्या कहूँ?
अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा-कुलतिलक और पुरुषों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें?
पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा-दारोगा जी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से मुझे अपनी हिरासत में लिया था किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पड़ा, किंतु मुझे परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ।
वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया किंतु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं। क्षमा-प्रार्थना कर चेष्टा नहीं की, वरन उन्हें अपने पिता की यह ठकुर-सुहाती की वात असह्य-सी प्रतीत हुई। पर पंडितजी की बातें सुनीं तो मन की मैल मिट गई। पंडितजी की ओर उड़ती हुई दृष्टि से देखा। सदभाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शरमाते हुए बोले-यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेड़ी में जकड़ा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी, वह मेरे सिर-माथे पर।
अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा-नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्तीकार की थी किंतु आज स्वीकार करनी पड़ेगी।
वंशीधर बोले-मैं किस योग्य हूँ किन्तु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।
अलोपीदीन ने एक स्टांप लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले-इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूँ. जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हदूँगा।
मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढ़ा तो कृतज्ञता से आँखों में आँसू भर आए। पंडित अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छह हप्तार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिए घोड़े, रहने को बंगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कंपित स्वर में बोले-पंडित जी, मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूँ। किंतु मैं ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूँ।
अलोपीदीन हँसकर बोले- मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।
वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा-यों मैं आपका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किंतु मुझमें न विद्या है, न बुद्धि, न वह स्वभाव, जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान कार्य के लिए एक बड़े मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।
अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले-न मुझे विद्वता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्य कुशलता की। इन गुणों के महत्त्व का परिचय खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया है जिसके सामने योग्यता और • विद्वता की चमक फीकी पड़ जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उदंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे !
वंशीधर की आँखें डबडबा आई। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।
अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया।
लेखक परिचय
प्रेमचंद
मूल नाम- धनपत राय
जन्म- सन् 1880, लमही गाँव (उ.प्र.)
प्रमुख रचनाएँ- सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान (उपन्यास); सोज़े वतन, मानसरोवर-आठ खंड में, गुप्त धन (कहानी संग्रह); कर्बला, संग्राम, प्रेम की देवी (नाटक); कुछ विचार, विविध प्रसंग (निबंध-संग्रह)
मृत्यु- सन् 1936
प्रेमचंद हिंदी कथा-साहित्य के शिखर पुरुष माने जाते हैं। कथा-साहित्य के इस शिखर पुरुष का बचपन अभावों में बीता। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद पारिवारिक समस्याओं के कारण जैसे-तैसे बी. ए. तक की पढ़ाई की। अंग्रेज़ी में एम.ए. करना चाहते थे लेकिन जीवनयापन के लिए नौकरी करनी पड़ी। सरकारी नौकरी मिली भी लेकिन महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय होने के कारण त्यागपत्र देना पड़ा। राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ने के बावजूद लेखन कार्य सुचारु रूप से चलता रहा। पत्नी शिवरानी देवी के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलनों में हिस्सा लेते रहे। उनके जीवन का राजनीतिक संघर्ष उनकी रचनाओं में सामाजिक संघर्ष बनकर सामने आया जिसमें जीवन का यथार्थ और आदर्श दोनों था।
हिंदी साहित्य के इतिहास में कहानी और उपन्यास की विधा के विकास का काल-विभाजन प्रेमचंद को ही केंद्र में रखकर किया जाता रहा है (प्रेमचंद-पूर्व युग, प्रेमचंद युग, प्रेमचंदोत्तर युग)। यह प्रेमचंद के निर्विवाद महत्त्व का एक स्पष्ट प्रमाण है। वस्तुतः प्रेमचंद ही पहले रचनाकार हैं जिन्होंने कहानी और उपन्यास की विधा को कल्पना और रुमानियत के धुँधलके से निकालकर यथार्थ की ठोस जमीन पर प्रतिष्ठित किया। यथार्थ की जमीन से जुड़कर कहानी किस्सागोई तक सीमित न रहकर पढ़ने-पढ़ाने की परंपरा से भी जुड़ी। इसमें उनकी हिंदुस्तानी (हिंदी-उर्दू मिश्रित) भाषा का विशेष योगदान रहा। उनके यहाँ हिंदुस्तानी भाषा अपने पूरे ठाट-बाट और जातीय स्वरूप के साथ आई है।
उनका आरंभिक कथा-साहित्य कल्पना, संयोग और रुमानियत के ताने-बाने से बुना गया है। लेकिन एक कथाकार के रूप में उन्होंने लगातार विकास किया और पंच परमेश्वर जैसी कहानी तथा सेवासदन जैसे उपन्यास के साथ सामाजिक जीवन को कहानी का आधार बनाने वाली यथार्थवादी कला के अग्रदूत के रूप में सामने आए। यथार्थवाद के भीतर भी आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से आलोचनात्मक यथार्थवाद तक की विकास यात्रा प्रेमचंद ने की। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद स्वयं उन्हीं की गढ़ी हुई संज्ञा है। यह कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में किए गए उनके ऐसे रचनात्मक प्रयासों पर लागू होती है जो कटु यथार्थ का चित्रण करते हुए भी समस्याओं और अंतर्विरोधों को अंततः एक आदर्शवादी और मनोवांछित समाधान तक पहुँचा देती है। सेवासदन, प्रेमाश्रम आदि उपन्यास और पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोगा आदि कहानियाँ ऐसी ही हैं। बाद की उनकी रचनाओं में यह आदर्शवादी प्रवृत्ति कम होती गई है और धीरे-धीरे वे ऐसी स्थिति तक पहुँचते हैं जहाँ कठोर वास्तविकता को प्रस्तुत करने में वे किसी तरह का समझौता नहीं करते। गोदान उपन्यास और पूस की रात, कफन आदि कहानियाँ इसके सुंदर उदाहरण हैं।
यहाँ दी गई कहानी नमक का दारोगा (प्रथम प्रकाशन 1914 ई.) प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानी है जिसे आदशोन्मुख यथार्थवाद के एक मुकम्मल उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। कहानी में ही आए हुए एक मुहावरे को लें तो यह धन के ऊपर धर्म की जीत की कहानी है। धन और धर्म को हम क्रमशः सवृत्ति और असवृत्ति, बुराई और अच्छाई, असत्य और सत्य इत्यादि भी कह सकते हैं। कहानी में इनका प्रतिनिधित्व क्रमशः पंडित अलोपीदीन और मुंशी वंशीधर नामक पात्रों ने किया है। ईमानदार कर्मयोगी मुंशी वंशीधर को खरीदने में असफल रहने के बाद पंडित अलोपीदीन अपने धन की महिमा का उपयोग कर उन्हें नौकरी से मुअत्तल करा देते हैं, लेकिन अंतःसत्य के आगे उनका सिर झुक जाता है। वे सरकारी महकमे से बर्खास्त वंशीधर को बहुत ऊँचे वेतन और भत्ते के साथ अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त करते हैं और गहरे अपराध-बोध से भरी हुई वाणी में निवेदन करते हैं, परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारेवाला बेमुरौवत, उहंड, किंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे। कहानी के इस अंतिम प्रसंग से पहले तक की समस्त घटनाएँ प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा उस भ्रष्टाचार की व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता को अत्यंत साहसिक तरीके से हमारे सामने उजागर करती हैं। ईमानदार व्यक्ति के अभिमन्यु के समान निहत्थे और अकेले पड़ते जाने की यथार्थ तसवीर इस कहानी की बहुत बड़ी खूबी है। किंतु प्रेमचंद इस संदेश पर कहानी को खत्म नहीं करना चाहते क्योंकि उस दौर में वे मानते थे कि ऐसा यथार्थवाद हमको निराशावादी बना देता है, मानव-चरित्र पर से हमारा विश्वास उठ जाता है, हमको चारों तरफ़ बुराई-ही-बुराई नजर आने लगती है ('उपन्यास' शीर्षक निबंध से) इसीलिए कहानी का अंत सत्य की जीत के साथ होता है।
गद्यांशों के प्रसंग संदर्भ सहित व्याख्या
पद 1. जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात्र हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।
संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' की बहुचर्चित कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इसके लेखक उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' हैं।
प्रसंग - इन पंक्तियों में बताया गया है कि मनुष्य धन के आकर्षण में सम्मानित पद को भी त्याग देता है तथा छल-कपट के मार्ग पर चलकर धनी बनने की इच्छा रखता है।
भावार्थ - नमक भगवान के द्वारा मानव को दी गई महत्वपूर्ण देन है जिस पर प्रत्येक व्यक्ति का समान अधिकार है परन्तु ब्रिटिश सरकार ने इसके प्रयोग पर रोक लगा दी तथा एक नया विभाग 'नमक विभाग' बना दिया। धन का लोभी मानव छिप-छिप कर नमक का व्यापार करने लगा तथा कालाबाजारी से धन कमाने में लग गया। कोई अपना चोरी का व्यापार अफसरों की लल्लो-चप्पो से करके धनवान बन रहा था तो दूसरी ओर धोखाधड़ी तथा चालाकी से नमक को ऊँचे दामों में बेचकर धनवान बन रहा था। कोई अफसरों को घूस देता और अपना माल महँगा बेच देता तो कोई बुद्धि की चतुराई से धन कमाने में लगा था अर्थात् साम-दाम-दण्ड-भेद से पैसा कमाने में लगा था। अधिकारी वर्ग दौलत से प्राप्त ऐशो-आराम भोगने में लगा था। लोग पैसा कमाने के लिए पटवारी जैसे उच्च व सम्मानित पदों को त्यागकर नमक विभाग में चौकीदारी जैसे निम्न पद को अपनाने में लगे थे। यहाँ तक कि अच्छी आमदनी वाले वकील न्यायालय की वकालत को छोड़कर दारोगा पद की ओर आकर्षित हो रहे थे। इस विभाग में नौकरी व पद पाकर वे अपने को धन्य मानते थे। इन लोगों पर दौलत का नशा चढ़ा था। इस मनोवृत्ति ने समाज में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। रिश्वत की मोटी कमाई से लोग समाज में सम्मान प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) धन के प्रति मनुष्य के बढ़ते आकर्षण का सटीक वर्णन किया गया है। (2) संस्कृत के सामासिक शब्दों के साथ उर्दू के शब्दों की बहुलता। (3) समाज की मनोवृत्ति का चित्रण।
पद 2. मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पड़ें। अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तौ पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ। इस विषय में विवेक की बड़ी आवश्यकता है।
संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' की बहुचर्चित कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इसके लेखक उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत गद्यांश में 'प्रेमचंद' ने बताया है कि वृद्ध तथा अनुभवी परन्तु लालची पिता आमदनी वाले पद के लिए पुत्र को उकसाते हैं चाहे ऐसा करने में मनुष्य की आत्मा का हनन हो जाए।
भावार्थ - जब वंशीधर नौकरी की तलाश में निकलते हैं तो उनके पिता ने अपने को जीवन के अन्तिम किनारे पर खड़े होने का वास्ता देते हुए आमदनी वाली नौकरी ढूँढ़ने की सलाह दी। पुत्र को परिवार की जिम्मेदारियाँ देते हुए उसे परिवार का मालिक बताया। आगे अपनी बात को महत्व के साथ कहा कि नौकरी में ऊँचे पद को मत देखना क्योंकि पद मजार के समान सम्मानीय है पर आमदनी का साधन नहीं होता इसलिये पद से प्राप्त आमदनी पर नजर रखना। अतः पद चाहे छोटा हो परन्तु धन प्राप्ति का साधन हो जिससे परिवार की दशा सुधर जाए। वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है। जिस प्रकार पूर्णमासी का चाँद पूर्ण गोल होता है परन्तु धीरे-धीरे घटते हुए अपने अस्तित्व को खो देता है। उसी प्रकार वेतन एक दिन पूर्ण चन्द्रमा जैसा मिलता है परन्तु व्यय करते-करते समाप्त हो जाता है परन्तु ऊपरी आय अर्थात् रिश्वत का धन प्रतिदिन मिलता है, जैसे नदी प्रतिदिन हर क्षण बहती रहती है उसमें कभी जल समाप्त नहीं होता उसी प्रकार रिश्वत भी प्रतिदिन प्राप्त होने वाला धन है। वेतन तो मनुष्य द्वारा दी गई वस्तु है, इसी कारण उसमें बढ़ोतरी नहीं होती तथा दूसरी ओर रिश्वत को देने वाला परमात्मा है जिससे वह प्रतिदिन बढ़ती जाती है। बेटे की प्रशंसा करते हुए कहा कि तुम बुद्धिमान तथा समझदार हो। अतः अपनी बुद्धि से अच्छे-बुरे को पहचान कर, आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ऊपरी आमदनी वाली नौकरी ढूँढ़ना।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) एक वृद्ध पिता के हृदयगत-भाव का सजीव चित्रण किया गया है। (2) मुहावरों के साथ उर्दू शब्दों से युक्त भाषा खड़ी बोली। (3) वेतन को पूर्णमासी के चन्द्रमा तथा ऊपरी आमदनी को बहते जल के रूप में अभिव्यक्त किया गया है।
पद 3. पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं, नचाती हैं।
संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' की बहुचर्चित कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इसके लेखक उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' हैं।
प्रसंग - मुंशी वंशीधर ने पं. अलोपीदीन की नमक से भरी गाड़ियाँ जो पुल के पार जा रही थी, पकड़ लीं तथा पंडित जी को बुलाया। पं. अलोपीदीन ने पैसे के माध्यम से इस घटना का हल निकालना चाहा। इस घटना का बड़ा सटीक चित्रण प्रस्तुत किया गया है।
भावार्थ - पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर अर्द्धनिद्रा में गाड़ियों के साथ पुल पार कर रहे थे तभी उन्हें गाड़ियों के पकड़े जाने का सन्देश मिला परन्तु पंडित तनिक भी नहीं घबराए क्योंकि उनका विश्वास था कि धन की रिश्वत देकर दारोगा साहब को प्रसन्न कर दूँगा जिससे गाड़ियाँ छूट जाएँगी। पंडित जी को पूर्ण भरोसा था कि धन से पृथ्वी के देवता तो क्या स्वर्ग के देवता को भी मनाया जा सकता है। लक्ष्मी का सर्वव्यापी राज्य है। उनके इस कथन में शत-प्रतिशत सच्चाई थी। आज के इस भौतिकतावादी संसार में धन ही सब कुछ है। धन से ही न्याय का पक्ष जीता जा सकता है तथा धन ही आदर्श है। समस्त संसार धन का ही गुलाम है तथा धन के संकेत पर ही नाचता है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) भाषा उर्दू मिश्रित, सरल, खड़ी बोली। (2) वाक्य गठन लघु परन्तु अर्थ-पूरित।
पद 4. अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे से खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन ऐश्वर्य को कड़ी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले-लाला जी, एक हज़ार के नोट बाबू साहब को भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।
संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' की बहुचर्चित कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इसके लेखक उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' हैं।
प्रसंग - वंशीधर के द्वारा धन लेने से इंकार करने पर पं. अलोपीदीन का साहस नष्ट हो गया। अब वे धनराशि की संख्या बढ़ाने में लगे परन्तु वंशीधर ने साफ इंकार कर दिया।
भावार्थ - व्याख्या-पं. अलोपीदीन ने अपनी दौलत को कवच समझ रखा था परन्तु मुंशी वंशीधर के सामने उनका धन रूपी कवच भी उनकी रक्षा न कर सका। जिस प्रकार पहाड़ की चट्टान पर खड़ा व्यक्ति अपने को सुरक्षित समझता है उसी प्रकार अलोपीदीन भी दौलात के कारण अपने को सुरक्षित समझ रहे थे, परन्तु वंशीधर ने उस दौलत को ठुकरा दिया जिस कारण अलोपीदीन अपने को अत्यन्त असहाय व अपमानित अनुभव करने लगे। इतना होने पर भी पं. अलोपीदीन को अपने दौलत की अधिकता पर भरोसा था। उन्होंने सोचा कि जब नोटों की संख्या बढ़ेगी तो वंशीधर लालच में आ उनको व उनकी गाड़ियों को छोड़ देंगे। अतः पंडित जी ने अपने वकील से मुंशी वंशीधर को भूखा शेर कह कर उन्हें एक हजार रुपये का दौलत रूपी माँस डालने को कहा परन्तु एक लालची व्यक्ति एक दृढ़ व्यक्ति के चरित्र को नहीं समझ पाता है। वह तो दूसरों को भी अपने समान लालची समझ लेता है। सत्य है, चरित्रवाने तथा ईमानदार, कर्त्तव्यपरायण तथा सत्यवादी चरित्र को पैसा गिरा नहीं सकता है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) भाषा उर्दू व संस्कृत के शब्दों से युक्त खड़ी बोली। (2)' पैरों के नीचे में खिसकना' जैसे मुहावरे का प्रयोग। (3) व्यंग्यपूर्ण कथन।
पद 5. धर्म की इस बुद्धिहीन दृढ़ता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुंझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीच हज़ार तक नौबत पहुँची, किंतु धर्म अलौकिक वीरता के साथ इस बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खड़ा था। अलोपीदीन निराश होकर बोले- अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।
संदर्भ― प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' की बहुचर्चित कहानी 'नमक का दारोगा' से लिया गया है। इसके लेखक उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' हैं।
प्रसंग - इसमें लेखक ने यह बताया है कि धन व धर्म के संघर्ष में धर्म की जीत हुई। धन की बड़ी सेना हार गई तथा धर्म अकेला पर्वत के समान खड़ा रहा। अन्त में पंडित अलोपीदीन ने निराश होकर हार मान ली।
भावार्थ - जब पंडित अलोपीदीन धन की इतनी विशाल सेना होने पर भी हार गए, तब उन्हें मुंशी वंशीधर में देवताओं से भी कठिन त्याग दिखाई देने लगा। धन तथा धर्मरूपी दोनों बल आपस में झगड़ने लगे। इस बेचैनी को दूर करने के लिये धन की सेना को बढ़ाना शुरू कर दिया। वह धन की सेना उछल-उछल कर आक्रमण करने लगी अर्थात् घूस की रकम बीस हजार तक पहुँच गई। लेकिन वंशीधर जो धर्म का प्रतीक थे उनमें धन की सेना के सामने झुकने की भावना जाग्रत नहीं हुई बल्कि वे एक पर्वत की अटल चट्टान के समान धन-सेना के वार पर वार सहते रहे। वंशीधर ने अपनी ईश्वरीय अटल सहनशीलता का परिचय दिया। जिस कारण धन की सेना का कमाण्डर निराश हो गया और उसने अपनी पराजय को स्वीकार कर लिया। अन्त में कहा कि वंशीधर जैसा चाहें करें उन्हें अपने कर्तव्य पालन का अधिकार है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) बोल-चाल की भाषा के मध्य उर्दू तथा संस्कृत शब्दों का प्रयोग। (2)' उछल-उछलकर आक्रमण करना' जैसे शब्दों के प्रयोग से भाषा को चुलबुला बना दिया है। (3) धन पर धर्म की विजय।
पाठ का अभ्यास
पाठ के साथ
1. कहानी का कौन-सा पात्र आपको सर्वाधिक प्रभावित करता है और क्यों ?
उत्तर - प्रेमचन्द द्वारा रचित 'नमक का दारोगा' कहानी का मुख्य पात्र मुंशी वंशीधर सर्वाधिक प्रभावित करता है। वह एक सत्यनिष्ठ, ईमानदार, कर्त्तव्यपरायण तथा पितृभक्त आज्ञाकारी पुत्र है। नौकरी पर जाते समय उनके पिता उन्हें रिश्वत लेने तथा बेईमानी की शिक्षा देते हैं परन्तु स्वाभिमानी वंशीधर पिता के बताए गए मार्ग पर न चलकर सत्य का मार्ग अपनाते हैं। मुकदमा हारने पर भी पछतावा नहीं करते। अलोपीदीन जब उनको नौकरी देने आते हैं तो उनका स्वागत स्वाभिमान के साथ करते हैं। नौकरी के चले जाने पर उन्हें पछतावा नहीं था। जिसका परिणाम था कि पं. अलोपीदीन उनके कायल हो गए तथा उन्हें अपने व्यापार का स्थायी मैनेजर बना दिया। वंशीधर का सचरित्र हमें प्रभावित करता है।
2. 'नमक का दारोगा' कहानी में पंडित अलोपीदीन के व्यक्तित्व के कौन से दो पहलू (पक्ष) उभरकर आते हैं ?
उत्तर - 'नमक का दारोगा' कहानी का दूसरा मुख्य पात्र है पं. अलोपीदीन। उनके व्यक्तित्व के निम्नलिखित दो पहलू इस प्रकार हैं-
(1) धन-शक्ति पर विश्वास- इस गुण के द्वारा पंडित जी नदी के किनारे सत्यनिष्ठ वंशीधर को खरीदना चाहते हैं परन्तु असफल होने पर कचहरी में लक्ष्मी की शक्ति से मुकदमा अपने पक्ष में कर लेते हैं। उनका विश्वास था कि धन से समस्त कार्य किये जा सकते हैं। यह सत्य भी है क्योंकि आज के भ्रष्ट समाज में धन का ही साम्राज्य है। साथ ही वे वाणी में भी अति मधुर हैं। सम्पूर्ण कहानी में एक भी अपशब्द का उन्होंने प्रयोग नहीं किया है।
(2) सुपात्र की परख तथा निर्णय- पंडित अलोपीदीन के जीवन के सिक्के का दूसरा पहलू सुपात्र की परख व निर्णय है। अदालत में धन के दम पर वह मुकदमा तो जीत जाते हैं परन्तु वंशीधर की ईमानदारी से अति प्रभावित होते हैं। अपने इस पछतावे को वह अपनी जायदाद व व्यापार का स्थायी मैनेजर वंशीधर को बनाकर पूरा कर लेते हैं। वंशीधर से अपमानित होने पर वह बदला न लेकर उनके गुणों से प्रभावित होते हैं।
3. कहानी के लगभग सभी पात्र समाज की किसी न किसी सच्चाई को उजागर करते हैं। निम्नलिखित पात्रों के संदर्भ में पाठ के उस अंश को उधृत करते हुए बताइए कि यह समाज की किस सच्चाई को उजागर करते हैं- (क) वृद्ध मुंशी, (ख) वकील, (ग) शहर की भीड़।
उत्तर - (क) वृद्ध मुंशी - मुंशी वंशीधर के वृद्ध पिता एक अनुभवी तथा लालची व्यक्ति थे जो स्वयं तो जीवन में कुछ कर न सके परन्तु पुत्र से रिश्वत लेने और भ्रष्ट तरीके से धन कमाने के लिए कहते हैं। इस प्रकार वे समाज में व्याप्त भ्रष्ट चरित्र का प्रतीक बनते हैं, जैसे-"नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। .......... ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आमदनी हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन .......... । वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती, ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है .......... गरज वाले व्यक्ति के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है ........... इन बातों को निगाह में बाँध ले। यह मेरी जन्म भर की कमाई है।"
(ख) वकील - वकील एक ऐसा पात्र है जो न्याय को शब्दों के माया जाल में फँसा कर निर्णय अपने पक्ष में कर लेता है, वह पक्ष चाहे सत्य हो या असत्य। 'नमक का दारोगा' कहानी में भी धन के लोभी वकील हैं जिन्होंने सत्य की ओर से आँख मूँदकर असत्य को विजयी बना दिया। प्रमाण देखिए-
"वकीलों ने फैसला सुना और उछल पड़े। .......... उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी। डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजबीज में लिखा, "पं. अलोपीदीन के विरुद्ध दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रामक हैं। .......... लेकिन यह बड़े खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता के कारण एक भलेमानुष को कष्ट झेलना पड़ा .......... नमक हलाली ने उसके विवेक और बुद्धि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।"
(ग) शहर की भीड़ - शहर की भीड़ तो इस प्रतीक्षा में रहती है कि कब सड़क पर हंगामा हो और भीड़ आनन्द ले। वे सब तमाशबीन होते हैं सत्य से उनका कोई रिश्ता नहीं रहता जो मन में आया बोलते चले जाते हैं।
"दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृद्ध सबके मुँह से यही बात सुनाई देती थी .......... निन्दा की बौछारें हो रही थीं। मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया। ............ सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित आँखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा।"
4. निम्न पंक्तियों को ध्यान से पढ़िए-
नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मज़ार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढ़ना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्त्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृद्धि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती है, तुम स्वयं बुद्धिमान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।
(क) यह किसकी उक्ति है ?
उत्तर - यह उक्ति 'नमक के दारोगा' के 'वृद्ध पिता' की है।
(ख) मासिक वेतन को पूर्णमासी का चाँद क्यों कहा गया है ?
उत्तर - लेखक प्रेमचंद ने 'नमक का दारोगा' कहानी में वेतन को पूर्णमासी का चाँद इसलिए कहा है क्योंकि जिस प्रकार माह में एक बार चन्द्रमा पूर्ण होता है तथा चमकीला होता है परन्तु अगले दिन से घटता चला जाता है तथा पूर्ण लुप्त हो जाता है। उसी प्रकार मासिक वेतन महीने में एक बार मिलता है तथा प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा खर्च होने पर अन्त में उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।
(ग) क्या आप एक पिता के इस वक्तव्य से सहमत हैं ?
उत्तर - हम एक पिता के इस वक्तव्य से सहमत नहीं हैं क्योंकि पिता का कर्त्तव्य होता है सन्तान को भ्रष्टाचार व बुराइयों से बचा कर सच्चाई, ईमानदारी तथा कर्त्तव्य के मार्ग पर ले जाए
5. 'नमक का दारोगा' कहानी के कोई दो अन्य शीर्षक बताते हुए उसके आधार को भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - इस कहानी के दो अन्य शीर्षक निम्नलिखित हो सकते हैं-
सत्यमेव जयते - सम्पूर्ण कहानी में आरम्भ से लेकर अन्त तक सत्य की महत्ता को बताया गया है। मध्य में असत्य की जीत होती दिखाई देती है किन्तु अन्त में सत्य के समक्ष असत्य स्वयं आत्मसमर्पण कर देता है।
स्वाभिमान की जीत - नदी के तट पर वंशीधर अतिधैर्य से पं. अलोपीदीन को उनकी भूल समझाने का प्रयत्न करते हैं तथा तनिक भी विचलित नहीं होते उसी प्रकार पं. अलोपीदीन के घर आने पर स्वाभिमान के साथ सत्कार करते हैं परन्तु लल्लो-चप्पो का एक भी शब्द नहीं बोलते।
6. कहानी के अंत में अलोपीदीन के वंशीधर को मैनेजर नियुक्त करने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं ? तर्क सहित उत्तर दीजिए। आप इस कहानी का अंत किस प्रकार करते ?
उत्तर - पं. अलोपीदीन ने धन के बल से मुंशी वंशीधर को नौकरी से निकलवा दिया था परन्तु वह इस बुरे कर्म के कारण आत्मग्लानि व पछतावा अनुभव कर रहे थे। व्यक्ति स्वयं चाहे कितना भी भ्रष्ट हो परन्तु वह चाहता है कि इसके कर्मचारी उसके प्रति ईमानदार, सत्यनिष्ठ व कर्त्तव्यपरायण रहें। यही कारण वंशीधर को मैनेजर बनाने का रहा होगा। भारतीय संस्कृति के अनुसार हम भी कहानी का अन्त सुखान्त करते जिसमें पं. अलोपीदीन अपना जुर्म स्वीकार कर लेते और वंशीधर अपनी खोई प्रतिष्ठा को प्राप्त कर लेते।
पाठ के आस - पास
1. दारोगा वंशीधर गैर-कानूनी कार्यों की वजह से पंडित अलोपीदीन को गिरफ्तार करता है, लेकिन कहानी के अंत में इसी पंडित अलोपीदीन की सहृदयता पर मुग्ध होकर उसके यहाँ मैनेजर की नौकरी को तैयार हो जाता है। आपके विचार से वंशीधर का ऐसा करना उचित था ? आप उसकी जगह होते तो क्या करते ?
उत्तर - पं. अलोपीदीन एक अभिमानी तथा भ्रष्ट व्यक्ति होते हुए भी दूसरों के गुणों की परख व सम्मान करना जानते थे। इसी कारण मुंशी वंशीधर की अच्छाइयों को जानकर मैनेजर के पद पर रख लिया और वंशीधर एक शिक्षित व समझदार व्यक्ति थे इस कारण उन्होंने व्यक्ति की भूल के प्रति उदारता दिखाई और नौकरी स्वीकार कर ली। मेरी दृष्टि में ऐसा करना उचित था। मैं भी पंडित अलोपीदीन की नौकरी करके समाज को दूसरों की भूल को क्षमा करने का सन्देश देता।
2. नमक विभाग के दारोगा पद के लिए बड़ों-बड़ों का जी ललचाता था। वर्तमान समाज में ऐसा कौन-सा पद होगा जिसे पाने के लिए लोग लालायित रहते होंगे और क्यों ?
उत्तर - वर्तमान समाज में अनेक ऐसे पद हैं जिसे पाने के लिए लोग लालायित रहते हैं, क्योंकि उन पदों पर रिश्वत के रूप में धन व दिखावटी सम्मान मिलता है, जैसे सरकारी खजाने का खजाँची, शिक्षा विभाग के कर्मचारी, नेता पद, आयकर व बिक्रीकर विभाग, आयात तथा निर्यात विभाग। इन विभागों में रिश्वत की बोली लगती है।
3. अपने अनुभवों के आधार पर बताइए कि जब आपके तर्कों ने आपके भ्रम को पुष्ट किया हो।
उत्तर - बड़े-बड़े नेता चुनाव से पूर्व बड़े-बड़े वायदे करते हैं। तब मन कहता है कि क्या ऐसा हो पाएगा लेकिन जब वह चुनाव जीत जाते हैं तो अपने वायदों को पूर्ण रूप से भूल जाते हैं। इस प्रकार तर्क भ्रम को दूर कर देते हैं। नेता भी सामान्य व्यक्ति की तरह वायदे भूल जाते हैं तथा पुराने ढर्रे पर चलते हैं।
4. पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया। वृद्ध मुंशी जी द्वारा यह बात एक विशिष्ट संदर्भ में कही गई थी। अपने निजी अनुभवों के आधार पर बताइए ।
(क) जब आपको पढ़ना-लिखना व्यर्थ लगा हो।
उत्तर - हम देखते हैं एक शिक्षित व्यक्ति समाज में कार्यकुशल व व्यवहार कुशल न होकर असभ्य व्यवहार करता है, बड़ों का सम्मान नहीं करता या कभी-कभी बड़ी डिग्रियाँ लेने पर भी जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं हो पाता तो कह उठते हैं कि पढ़ना-लिखना सब व्यर्थ है इससे तो कम पढ़े-लिखे या अशिक्षित अच्छे हैं जो समाज में व्यवहार कुशल होते हैं।
(ख) जब आपको पढ़ना-लिखना सार्थक लगा हो।
उत्तर - उचित शिक्षा ग्रहण करने पर व्यक्ति विनम्रता के साथ समाज में सम्मानित जीवन बिताता है तथा आजीविका के उच्च साधनों को प्राप्त करके परिवार, समाज तथा देश की प्रगति में साथ देता है तो लगता है कि पढ़ना-लिखना सार्थक हो गया।
(ग) 'पढ़ना-लिखना' को किस अर्थ में प्रयुक्त किया गया होगा : साक्षरता अथवा शिक्षा ? (क्या आप इन दोनों को समान मानते हैं ?)
उत्तर - साक्षरता और शिक्षा अलग-अलग अर्थ देने वाले शब्द हैं-
साक्षरता का अर्थ है - अक्षर ज्ञान अर्थात् पढ़ने तथा लिखने में कुछ सामर्थ्य प्राप्त करना।
शिक्षा का अर्थ है-पढ़ना - लिखना आने पर व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करे तथा उस ज्ञान से समाज की उन्नति कर सके।
ये दोनों शब्द - साक्षरता तथा शिक्षा एक-दूसरे के समान न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। साक्षरता के माध्यम से ही व्यक्ति शिक्षा की सीढ़ियाँ चढ़ता है।
5. लड़कियाँ हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। वाक्य समाज में लड़कियों की स्थिति की किस वास्तविकता को प्रकट करता है ?
उत्तर - वंशीधर के वृद्ध पिता लड़कियों को पुरुष प्रधान समाज में घास जैसी वस्तु के समान मानते हैं। जैसे-घास बिना खाद आदि के ही उगकर बढ़ जाती हैं, लड़कियाँ भी शीघ्र बड़ी होती दिखाई देती हैं। माँ-बाप उनके व परिवार के सम्मान में उनके विवाह की चिन्ता में लग जाते हैं। लड़कियों को बोझ समझने लगते हैं तथा उसे पराया धन मानकर अपने कर्त्तव्य से मुक्त होना चाहते हैं।
6. इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए। प्रत्येक व्यक्ति उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। अपने आस-पास अलोपीदीन जैसे व्यक्तियों को देखकर आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? उपर्युक्त टिप्पणी को ध्यान में रखते हुए लिखें।
उत्तर - अलोपीदीन जैसे व्यक्ति को देखकर मन में आता है कि वर्तमान में उसे दण्डित करने के बजाय अनुचित धन कमाने के रास्ते सरकार को शुरू में ही रोक देने चाहिए क्योंकि असीमित धन बिना अन्चित साधनों के नहीं कमाया जा सकता। ऐसे व्यक्तियों को दण्डित करना चाहिए। इसके साथ जो ईमानदार तथा सत्यनिष्ठ व्यक्ति हैं. उन्हें पुरस्कृत किया जाए। साथ ही व्यक्तियों की मानसिकता को बदलने वाली शिक्षा प्रणाली हो । भ्रष्टाचार दण्ड से नहीं व्यक्ति की मानसिकता तथा शिक्षा से बदला जा सकता है। भ्रष्ट व्यक्तियों के प्रति सहानुभूति प्रकट करने वाले व्यक्तियों को उनसे पहले दण्डित किया जाए।
समझाइए तो ज़रा
1. नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर की मज़ार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए।
उत्तर - इस कथन का अर्थ है कि व्यक्ति को ऐसे पद पर काम करना चाहिए जहाँ खूब ऊपरी आमदनी यानि रिश्वत का पैसा मिलता हो आज का सिद्धान्त केवल पैसा कमाना है।
2. इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुद्धि अपनी पथ-प्रदर्शक और आत्मावलंबन ही अपना सहायक था।
उत्तर - वर्तमान में एक सत्यवादी, ईमानदार तथा परिश्रमी व्यक्ति का साथ कोई नहीं देता क्योंकि चारों ओर भ्रष्टाचार, रिश्वत, झूठ, बेईमानी आदि का बोल-बाला है। ऐसे कठिन समय में ईमानदार व्यक्ति का सच्चा मित्र धैर्य है अर्थात् उसे धैर्य से निर्णय लेना होता है, बुद्धि यानि विवेक ही उसे सच्चाई का ज्ञान कराती है, वही उसकी मार्गदर्शक है और इसी प्रकार उसकी अपनी आत्मा ही कठिन समय में सत्य-असत्य का निर्णय करने में सहारा देती है।
3. तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया।
उत्तर - नमक के दारोगा मुंशी वंशीधर ने गहरी नींद में सोते हुए नदी के पुल से पार होती गाड़ियों की आवाज सुनी तो वे तुरन्त नदी तट पर गये और उन्हें लगा कि कोई अनुचित वस्तु चोरी-छिपे ले जाई जा रही है। वहाँ के लोगों से पूछने पर कोई उत्तर नहीं मिला तो उनका भ्रम और पक्का हो गया। उन्होंने स्वयं बोरियों को टटोला तो उनमें नमक के ढेले थे। उनका सन्देह पक्का हो गया। इस प्रकार तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया।
4. न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती है, नचाती हैं।
उत्तर - भौतिकवादी संसार में सब जगह लक्ष्मी (धन) का ही राज्य है। न्यायालयों में वकीलों को रिश्वत देकर निर्णय अपने पक्ष में कराया जाता है। धन के आधार पर या धनिकों के अनुसार समाज के नियम बनाये जाते हैं। सारा संसार धन को ही पूजता है।
5. दुनिया सोती थी, पर दुनिया की जीभ जागती थी।
उत्तर - लेखक ने बताया है कि वंशीधर ने पं. अलोपीदीन को नमक का गैर-कानूनी व्यापार करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी की चर्चा सारी रात होती रही। यद्यपि यह मध्य रात्रि का समय था सब लोग गहरी नींद में सो रहे थे परन्तु पं. अलोपीदीन के कुकर्म तथा वंशीधर की बहादुरी के किस्सों की चर्चा जोरों पर थी।
6. खेद ऐसी समझ पर! पढ़ना-लिखना सब अकारथ गया।
उत्तर - वंशीधर के पिता दुःखी होकर पुत्र से कहते हैं कि पढ़-लिखकर लोग साम-दाम-दण्ड-भेद द्वारा पैसा-ही-पैसा कमाते हैं परन्तु वंशीधर ने तो आई लक्ष्मी का स्वागत न करके उसे ठुकरा दिया। उन्होंने पढ़-लिखकर भी परिवार की समस्या को दूर करने का प्रयत्न नहीं किया, सारी पढ़ाई बेकार गई।
7. धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला।
उत्तर - नदी के किनारे पर नमक की अवैध गाड़ियों को पार ले जाने के लिए पं. अलोपीदीन ने सत्यवादी व ईमानदार वंशीधर को एक बहुत बड़ी रकम प्रस्तुत की, परन्तु दारोगा जी ने उस घूस को ठुकराकर पं. अलोपीदीन को हिरासत में ले लिया। धन हार गया और धर्म की विजय हुई।
8. न्याय के मैदान में धर्म और धन में युद्ध ठन गया।
उत्तर - अगले दिन पं. अलोपीदीन तथा वंशीधर न्यायालय में पहुँचे तो वंशीधर के पास सत्य, ईमान, कर्त्तव्य की सेना थी दूसरी ओर अलोपीदीन के पास धन से खरीदी हुई वकीलों, न्यायाधीशों, गवाहों, नौकर-चाकर आदि की एक बड़ी सेना थी। दोनों में युद्ध छिड़ गया। लेखक ने भारतीय न्यायालयों की कार्यकुशलता को एक मजाक बताया है।
भाषा की बात
1. भाषा की चित्रात्मकता, लोकोक्तियों और मुहावरों का जानदार उपयोग तथा हिंदी उर्दू के साझा रूप एवं बोल-चाल की भाषा के लिहाज से यह कहानी अद्भुत है। कहानी में से ऐसे उदाहरण छाँटकर लिखिए और यह भी बताइए कि इनके प्रयोग से किस तरह कहानी का कथ्य अधिक असरदार बना है ?
उत्तर - भाषा की चित्रात्मकता - अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले-"न मुझे विद्वता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की। यह कलम लीजिए अधिक सोच-विचार मत कीजिए, दस्तखत कर दीजिए।"
लोकोक्तियों और मुहावरों के जानदार उपयोग - जन्मभर की कमाई फूले न समाए; हृदय में शूल उठना; सन्नाटा छा गया; इज्जत धूल में मिलना; पैरों के नीचे से खिसकना; पैरों तले कुचलना; घर में अँधेरा, मस्जिद में दीया; मिट्टी में मिल जाना; लल्लो-चप्पो करना; कालिख लगना; गले लगाना।
हिंदी-उर्दू के साझा रूप - पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मी पर अखण्ड विश्वास था।
"हम उन नमकहरामों में नहीं जो कौड़ियों पर अपना ईमान बेचते हैं। आप हिरासत में हैं। भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना माल के गुलाम थे।"
भाषा की चित्रात्मकता, लोकोक्तियों व मुहावरों का प्रयोग तथा हिंदी उर्दू के शब्दों के साझा प्रयोग से कहानी का कलेवर बढ़ता है, भाव स्पष्ट हो जाते हैं, कहानी में गतिशीलता आती है, पाठक के हृदय में रुचि पैदा होती है जिस कारण वह कहानी को एक ही बैठक में पढ़ जाता है।
2. कहानी में मासिक वेतन के लिए किन-किन विशेषणों का प्रयोग किया गया है ? इसके लिए आप अपनी ओर से दो-दो विशेषण और बताइए। साथ ही विशेषणों के आधार को तर्क सहित पुष्ट कीजिए।
उत्तर - कहानी में मासिक वेतन के लिए 'पूर्णमासी का चाँद' तथा 'मानव प्रदत्त' विशेषणों का प्रयोग हुआ है।
नये विशेषण - 'एक दिवसीय आय'; 'दीर्घ प्रतीक्षा का फल'।
तर्क-(1) आज की मँहगाई में मासिक वेतन तो एक दिवसीय आय मात्र है।
(2) मासिक वेतन तो बड़ी दीर्घ प्रतीक्षा का फल होता है।
3. (क) बाबूजी आशीर्वाद !
(ख) सरकारी हुक्म !
(ग) दातागंज के !
(घ) कानपुर !
दी गई विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ एक निश्चित संदर्भ में निश्चित अर्थ देती हैं। संदर्भबदलते ही अर्थ भी परिवर्तित हो जाता है। अब आप किसी अन्य संदर्भ में इन भाषिक अभिव्यक्तियों का प्रयोग करते हुए समझाइए।
उत्तर - (क) बाबूजी, आशीर्वाद ही सर्वोपरि है।
(ख) सरकारी हुक्म को टाला नहीं जा सकता है।
(ग) पं. अलोपीदीन दातागंज के निवासी थे।
(घ) गाड़ियाँ कानपुर जाएँगी।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
(I hope the above information will be useful and important. )
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
rfhindi.com
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