
पाठ 1 – आत्मपरिचय, एक गीत (कविताएँ - हरिवंश राय बच्चन) कक्षा 12th हिन्दी (आरोह भाग 2 काव्य खंड) | कविताओं का भावार्थ एवं संपूर्ण अभ्यास (प्रश्न उत्तर)
भाव सारांश-
'आत्मपरिचय' एवं 'एक गीत' नामक दोनों कविताओं के रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
कवि हरिवंश राय बच्चन ने संकलित प्रथम कविता में अपना परिचय देते हुए दुनिया से अपने द्विधात्मक और द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों का मर्म उद्घाटित किया है। कवि के अनुसार वे अपने जीवन में अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना करते हुए भी जीवन के प्रति अनुराग रखते हैं। वे अतीत की सुखद स्मृतियों को सैंजोकर रखते हैं। संसार की रूढ़ियों का ध्यान किये बिना वे सदैव अपने मनानुसार कार्य करते रहना चाहते हैं। वे संसार की अपूर्णता से बेखबर अपने स्वयं के सपनों में ही विचरण करते रहते हैं। कवि के मन में यौवन का नशा है जिसमें कभी-कभी निराशा भी घिर आती है। वे अन्दर तक व्यथित हो उठते हैं किन्तु फिर मुस्कराते हुए किसी की स्मृतियों में खो जाते हैं।
कवि बच्चन सत्य की खोज में भटकते इस जग को मूर्ख मानते हैं और सीखे हुए सांसारिक ज्ञान को विस्मृत करना चाहते हैं। संसार की प्रवृत्ति के ठीक विपरीत वे भौतिक सुख-सुविधाओं को ठुकराते हुए अपने कष्टों एवं दुःखों में भी संगीत लिए फिरते हैं। उनकी कोमल वाणी में विद्रोह की आग है। वे निज जीवन के दुःख रूपी खण्डहरों को राजाओं के महलों से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। कवि का रुदन ही रचनाओं में छंदों के रूप में अभिव्यक्त होता है। कवि बच्चन स्वयं को संसार द्वारा स्वयं को कवि के रूप में पहचाने जाने पर भी आपत्ति है। वे तो स्वयं को मदमस्त फकीर के रूप में देखते हैं। कवि दीवानों के वेश में अपनी रचनाओं में मादकता लिए फिरते हैं और प्रेमरूपी इसी मादकता से संसार के सभी सुनने वालों को मस्ती का सन्देश देना चाहते हैं।
पाठ में संकलित द्वितीय कविता में कवि बच्चन ने 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' जो गीत संग्रह 'निशा निमन्त्रण' से उधृत है, में बहुत ही सरल प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से प्रेम की व्याकुलता का वर्णन किया है। कवि के अनुसार बाट जोहते अपने प्रियजनों से शीघ्र मिलन की आस में ही पथिक के पग तेज-तेज चलने लगते हैं। भूख से व्याकुल घोंसले से झाँकते बच्चों का मार्मिक चित्र पंछी के परों में नई ऊर्जा भर देता है। परन्तु कवि की प्रतीक्षा करने के लिए उसका अपना कोई प्रिय नहीं है। इसलिए उसका व्यथित मन उसके कदमों को शिथिल बना देता है।
कवि परिचय
हरिवंश राय बच्चन
जन्म- सन् 1907, इलाहाबाद
प्रमुख रचनाएँ- मधुशाला (1935), मधुबाला (1938), मधुकलश (1938), निशा निमंत्रण, एकांत संगीत, आकुल-अंतर, मिलनयामिनी, सतरंगिणी, आरती और अंगारे, नए पुराने झरोखे, टूटी-फूटी कड़ियाँ (काव्य संग्रह); क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर, बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक (आत्मकथा चार खंड); हैमलेट, जनगीता, मैकबेथ (अनुवाद); प्रवासी की डायरी (डायरी) उनका पूरा वाङ्मय 'बच्चन ग्रंथावली' के नाम से दस खंडों में प्रकाशित।
निधन- सन् 2003, मुंबई में
पूर्व चलने के बटोही बाट की पहचान कर ले 1942-1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, आकाशवाणी के साहित्यिकः कार्यक्रमों से संबद्ध, फिर विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषज्ञ रहे। दोनों महायुद्धों के बीच मध्यवर्ग के विक्षुब्ध, विकल मन को बच्चन ने वाणी का वरदान दिया। उन्होंने छायावाद की लाक्षणिक वक्रता के बजाय सीधी-सादी जीवंत भाषा और संवेदनसिक्त गेय शैली में अपनी बात कही। व्यक्तिगत जीवन में घटी घटनाओं की सहज अनुभूति की ईमानदार अभिव्यक्ति बच्चन के यहाँ कविता बनकर प्रकट हुई। यह विशेषता हिंदी काव्य संसार में उनकी विलक्षण लोकप्रियता का मूल आंधार है।
मध्ययुगीन फ़ारसी के कवि उमर खय्याम का मस्तानापन हरिवंश राय बच्चन की प्रारंभिक कविताओं विशेषकर मधुशाला में एक अद्भुत अर्थ-विस्तार पाता है-जीवन एक तरह का मधुकलश है, दुनिया मधुशाला है, कल्पना साकी और कविता वह प्याला जिसमें ढालकर जीवन पाठक को पिलाया जाता है। कविता का एक घूँट जीवन का एक घूँट है। पूरी तन्मयता से जीवन का घूँट भरें, कड़वा-खट्टा भी सहज भाव से स्वीकार करें तो अंततः एक सूफ़ियाना-सी बेखयाली मन पर छाएगी, एक के बहाने सारी दुनिया से इश्क हो जाएगा, और तेरा-मेरा के समस्त झगड़े काफूर हो जाएँगे। इसे बच्चन का हालावादी दर्शन कहते हैं।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि उनकी युगबोध-संबंधी कविताएँ जो बाद में लिखी गईं, उनका मूल्यांकन अभी तक कम ही हो पाया है। बच्चन का कवि-रूप सबसे विख्यात है, पर उन्होंने कहानी, नाटक, डायरी आदि के साथ बेहतरीन आत्मकथा भी लिखी है-जो ईमानदार आत्मस्वीकृति और प्रांजल शैली के कारण निरंतर पठनीय बनी हुई है।
यहाँ उनकी कविता आत्मपरिचय तथा गीत संग्रह निशा निमंत्रण का एक गीत दिया जा रहा है। अपने को जानना दुनिया को जानने से ज्यादा कठिन है। समाज से व्यक्ति का नाता खट्टा-मीठा तो होता ही है। जगजीवन से पूरी तरह निरपेक्ष रहना संभव नहीं। दुनिया अपने व्यंग्य-बाण और शासन-प्रशासन से चाहे जितना कष्ट दे, पर दुनिया से कटकर मनुष्य रह भी नहीं पाता। क्योंकि उसकी अपनी अस्मिता, अपनी पहचान का उत्स, उसका परिवेश ही उसकी दुनिया है- अपना परिचय देते हुए वह लगातार दुनिया से अपने द्विधात्मक और द्वंद्वात्मक संबंधों का मर्म ही उद्घाटित करता चलता है और पूरी कविता का सारांश एक पंक्ति में यह बनता है कि दुनिया से मेरा संबंध प्रीतिकलह का है, मेरा जीवन विरुद्धों का सामंजस्य है- उन्मादों में अवसाद, रोदन में राग, शीतल वाणी में आग, विरुद्धों का विरोधाभासमूलक सामंजस्य साधते साधते ही वह बेखुदी, वह मस्ती, वह दीवानगी व्यक्तित्व में उतर आई है कि दुनिया में हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ / बाजार से गुजरा हूँ खरीदार नहीं हूँ-जैसा कुछ कहने का ठस्सा पैदा हुआ है। यह ठस्सा ही छायावादोत्तर गीतिकाव्य का प्राण है। किसी असंभव आदर्श (यूटोपिया) की तलाश में सारी दुनियादारी ठुकराकर उस भाव से दुनिया से इन्हें कोई वास्ता नहीं है। प्रीति-कलह का यही वितान और विरोधाभास का यह विग्रह इन्हें दूर टिमटिमाते तारे की अबूझ रहस्यात्मकता से लहालोट रखता है। निशा निमंत्रण से उद्धृत गीत में प्रकृति के दैनिक परिवर्तनशीलता के संदर्भ में प्राणि-वर्ग (विशेषकर मनुष्य) के धड़कते हृदय को सुनने की काव्यात्मक कोशिश है। बहुत ही सरल सर्वानुभूत बिंबों के जरिये किसी अगोचर सत्य की रूहानी छुअन महसूस करा देना बच्चन की जो अलग विशेषता है, यह गीत उसका एक बेहतर नमूना है। किसी प्रिय आलंबन या विषय से भावी साक्षात्कार का आश्वासन ही हमारे प्रयास के पगों की गति में चंचल तेजी भर सकता है- अन्यथा हम शिथिलता और फिर जड़ता को प्राप्त होने के अभिशिप्त हो जाते हैं। गीत इस बड़े सत्य के साथ समय के गुजरते जाने के एहसास में लक्ष्य प्राप्ति के लिए कुछ कर गुजरने का जरवा भी लिए हुए है।
पदों के प्रसंग संदर्भ सहित व्याख्या
(1) आत्मपरिचय
(1) मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हूँ।
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में हरिवंश राय बच्चन जी ने आत्मपरिचय का सजीव चित्रण किया है।
व्याख्या- सुप्रसिद्ध छायावादी गीतकार बच्चन जी अपने जीवन का बोध कराते हुए लिखते हैं कि मेरे जीवन में अनन्त उत्तरदायित्व एवं जिम्मेदारियाँ हैं। मैं उनके प्रति सचेत एवं सजग रहकर उनका निर्वहन भी करता हूँ। अनेक संघर्षों एवं कठिनाइयों के बावजूद मेरा जीवन नेह-रस से परिपूर्ण है। मुझसे प्रेम करने वाले मेरे किसी अपने ने एक बार मेरे मन की वीणा के भावनाओं रूपी तारों को छूकर झंकृत कर दिया था। उससे मेरा हृदय प्रेम से भरा हुआ है। मैं उसी स्नेहिल प्रेम-तरंग के साथ सुखद स्मृतियों में जीता फिरता हूँ।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) कवि अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों के प्रति सजग है।
(2) 'साँसों के तार' में रूपक अलंकार है।
(3) अनुप्रास, पदमैत्री तथा स्वर मैत्री अलंकार की शोभा दर्शनीय है।
(4) श्रृंगार रस की उन्मुक्त अभिव्यक्ति हुई है।
(5) भाषा सहज, सरल, सरस खड़ी बोली है।
(2) मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ!
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने अपनी मनमौजी जीवन शैली का सजीव चित्रण किया है।
व्याख्या- कवि कहता है कि वह सदैव प्रेमरूपी मदिरा का सेवन करता रहता है। कवि को इस बात से इंच मात्र भी अन्तर नहीं पड़ता कि यह संसार उसके बारे में कैसी-कैसी बातें करता है। उसे पागल-प्रेमी-दीवाना तक कहता है। कवि के अनुसार यह संसार बड़ा स्वार्थी है। यहाँ केवल उन्हीं की पूजा होती है जो संसार की प्रशंसा करते हैं। परन्तु कवि को इस स्वार्थी दुनिया और इसकी भौतिकता से कोई सरोकार नहीं है। वह तो देश-दुनिया से बेखबर अपने मन के भावों को गीतों में पिरोकर गाता फिरता है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) कवि ने संसार की स्वार्थपरता का सजीव चित्र उकेरा है।
(2) 'स्नेह-सुरा' में रूपक अलंकार है।
(3) अनुप्रास, पदमैत्री, स्वरमैत्री अलंकार दृष्टव्य है।
(4) श्रृंगार रस की उन्मुक्त अभिव्यक्ति हुई है।
(5) भाषा सरल, सहज, सरस खड़ी बोली है।
(3) मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ;
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ।
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि बच्चन जी ने सुख-दुःख, दोनों अवस्थाओं के प्रति समभाव रखने की बात कही है।
व्याख्या- कवि हरिवंश राय बच्चन कहते हैं कि मैं स्वयं अपने हृदय में प्रेम की अग्नि प्रज्ज्वलित करके उसमें जला करता हूँ अर्थात् उस प्रेमाग्नि में प्रसन्नतापूर्वक स्वयं को तपाता हूँ। इस बीच जीवन में आने वाले सुखों और दुःखों, दोनों को मैं समभाव से लेता हूँ। मेरे लिए सुख-दुःख जीवन रूपी सिक्के के दो पहलू भर हैं। कवि संसार के दूसरे लोगों को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि लोग इस संसार रूपी सागर से पार उतरने के लिए नाव रूपी नाना प्रकार के साधन एकत्रित करते-फिरते हैं जबकि वह तो इस विपदा रूपी संसार की प्रचण्ड लहरों में ही रमे रहना चाहते हैं और फिर इन हिलोरों में बेफिक्री के साथ बहकर डूबते-उतराते रहते हैं।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) कवि ने प्रेम की मस्ती को ही अपना जीवन माना है।
(2) 'भव-सागर' एवं 'भव-मौज' में रूपक अलंकार है।
(3) 'अग्नि' एवं 'नाव' में रूपकातिशयोक्ति अलंकार है।
(4) वियोग श्रृंगार रस की उन्मुक्त अभिव्यक्ति हुई है।
(5) तत्सम शब्दावली की बहुलता है।
(6) भाषा सरल, सहज, सरस खड़ी बोली है।
(4) कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना !
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना।
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने जीवन के 'शाश्वत सत्य' का वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि बच्चन कहते हैं कि इस संसार में अनेक महापुरुषों ने सत्य (ब्रह्म) की खोज के लिए निरन्तर प्रयास किए किन्तु वे सभी अपने इन अगनित प्रयत्नों के बाद भी क्या सत्य की खोज कर पाए ? कवि आगे कहते हैं कि इस संसार में ज्ञानी और समझदार लोगों के बीच ही मूर्ख एवं नासमझ लोग भी मौजूद हैं। प्रत्येक व्यक्ति सत्य की खोज में भौतिक उपादानों की ओर दौड़ रहा है। वे इतना सत्य भी नहीं समझ पाते हैं कि उनकी यह भाग-दौड़ वास्तविक सत्य की खोज के लिए नहीं है। मैं तो इस सत्य को भली-भाँति पहचान चुका हूँ और इसीलिए उस परम सत्य (ब्रह्म) की खोज की प्रक्रिया में इस दुनियादारी के सीखे हुए भौतिक ज्ञान को भुलाने का लगातार प्रयास कर रहा हूँ।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) कवि ने जीवन के अन्तिम लक्ष्य सत्य (ब्रह्म) की खोज की बात की है।
(2) 'कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ? 'पंक्ति में अनुप्रास अलंकार है।
(3) 'नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना' पंक्ति में सूक्ति तुल्य प्रभाव उत्पन्न हुआ है।
(4) शान्त रस एवं प्रसाद गुण मौजूद है।
(5) भाषा सरल, सहज, सरस खड़ी बोली है।
(5) मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज मिटाता;
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता !
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि बच्चन ने संसार से स्वयं के द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों के बारे में बताया है।
व्याख्या- कवि कहते हैं कि मेरा स्वभाव दुनिया के स्वभाव से सर्वथा विपरीत है। ऐसे में, मेरा और इस संसार का भला कैसे कोई सम्बन्ध हो सकता है ? मैं तो न जाने इस संसार जैसे कितने काल्पनिक संसार नित रोज बनाता हूँ और फिर अपनी ही धुन में उन्हें मिटाकर कल्पनाशीलता के सागर में नव-निर्माण के लिए डूब जाता हूँ। जिस पृथ्वी पर यह संसार सदा भौतिक सुख-सुविधाओं और धन-ऐश्वर्य को जोड़ने में उम्र भर लगा रहता है, मैं उससे प्रभावित हुए बिना उसके विपरीत अपने प्रत्येक चरण से उस पृथ्वी को ठुकराता फिरता हूँ अर्थात् मुझे सुख-समृद्धि और धन-सम्पदा की तनिक भी चाह नहीं है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) कवि ने सांसारिकता को ठुकराने की बात कही है।
(2) 'कहाँ का नाता' पंक्ति में प्रश्नालंकार है।
(3) 'और' की आवृत्ति में यमक अलंकार की छटा दर्शनीय है।
(4) 'बना-बना 'में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(5) भाषा सरल, सहज, सरस खड़ी बोली है।
(6) मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्य में कवि ने अपनी स्वभावगत विशेषताओं का सुन्दर वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि कहते हैं कि मेरी पीड़ा में भी एक विशिष्ट प्रकार का प्रेम छिपा हुआ है। मैं अपने गीतों में अपनी इसी प्रेमजड़ित पीड़ा को पिरोकर गाता फिरता हूँ। मेरी शीतल वाणी में भी मेरा जोश एवं ऊर्जा स्पष्ट रूप से व्याप्त है। कवि आगे कहते हैं कि मैं अपने साथ सदैव अपनी ऐसी खण्डहर रूपी प्रेममयी यादों को सहेजे फिरता हूँ कि जिससे ईर्ष्यावश बड़े-बड़े राजा-महाराजा अपने महलों तक को भी तत्काल त्यागने के लिए तैयार हो जायें। मैं उसी अमूल्य प्रेम को अपने मन में संजोये हुए हूँ।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) गीतों में विरह वेदना के कारण उत्पन्न शीतलता के अन्दर छुपी व्याकुलता का सजीव चित्रण हुआ है।
(2) 'रोदन में राग', 'शीतल वाणी में आग' तथा 'खण्डहर पर प्रासाद निछावर' पंक्तियों में विरोधाभास अलंकार है।
(3) श्रृंगार रस की वियोगावस्था की अभिव्यक्ति हुई है।
(4) भाषा सरल, सहज, सरस तत्सम शब्दावली युक्त खड़ी बोली है।
(7) मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ;
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ।
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'आत्मपरिचय' से अवतरित है। इसके रचयिता 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हरिवंश राय बच्चन ने संसार को प्रेम और मस्ती का सन्देश दिया है।
व्याख्या- कवि कहता है कि मैं प्रेम की स्मृतियों में डूबा दीवानों का-सा रूप धारण करके पूरी दुनिया में घूमा फिरता हूँ और जहाँ भी जाता हूँ अपने गीतों में छुपी सम्पूर्ण मादकता को जीता हूँ। मैं प्रेम और श्रृंगार के गीत गाता हूँ जिन्हें सुनकर सुनने वाले प्रेम की सत्ता के समक्ष नत हो जाते हैं और मेरे गीतों की मस्ती में लहराने लगते हैं। मैं अपने गीतों के माध्यम से दुनिया भर के लोगों के लिए प्रेम और मस्ती का सन्देश लिए फिरता हूँ।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) कवि जग को प्रेम और आनन्द का सन्देश देना चाहता है।
(2) 'झूम, झुके' पंक्ति में अनुप्रास अलंकार की छटा है।
(3) श्रृंगार रस के वियोग पक्ष की उन्मुक्त अभिव्यक्ति हुई है।
(4) भाषा तत्सम एवं तद्भव शब्दावली युक्त है।
(2) दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
(1) हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है।
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' से अवतरित है। इसके रचयिता सुप्रसिद्ध गीतकर 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने समय की परिवर्तनशीलता और उसके निरन्तर चलायमान होने का सुन्दर वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि समय के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहता है कि समय निरन्तर परिवर्तनशील है। अतः तेजी से व्यतीत होते हुए समय को देखकर रास्ते पर चलने वाला राहगीर (अथवा दिन का पथिक सूर्य) दिन-भर की थकान के बाद भी अपनी मंजिल की ओर तेजी से कदम बढ़ाता है। जल्दी दिन के ढलने से उत्पन्न अंधेरा होने की आशंका से घिरा, पथिक मंजिल को समीप पाकर और अधिक ऊर्जा और स्फूर्ति के साथ अपने अन्तिम लक्ष्य की ओर दुगुने उत्साह से चल पड़ता है। कवि के अनुसार पथिक की व्याकुलता से बेपरवाह दिन तेजी के साथ व्यतीत होता है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) पद्यांश में पथिक द्वारा जल्दी से मंजिल को पाने की व्यग्रता स्पष्ट हुई है।
(2) 'जल्दी-जल्दी' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(3) भाषा सरल, सहज, सरस एवं भावानुकूल है।
(4) शान्त रस विद्यमान है।
(2) मुझसे मिलने को कौन विकल ?
मैं होऊँ किसके हित चंचल ?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है !
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।
संदर्भ― प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'आरोह' में संकलित कविता 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' से अवतरित है। इसके रचयिता सुप्रसिद्ध गीतकर 'हरिवंश राय बच्चन' हैं।
प्रसंग - प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने एकाकी जीवन की कुण्ठा का यथार्थवादी वर्णन किया है।
व्याख्या- कवि कहता है कि इस जग में वह अकेला ही है। जीवन पथ पर बढ़ते-बढ़ते वह सोचने लगता है कि उसका कोई ऐसा अपना प्रिय नहीं है जो उससे मिलन की आस में प्रतीक्षारत हो। इसलिए, मैं किसका चेहरा स्मरण कर, किसके हितार्थ अपने गन्तव्य की ओर व्यग्रता के साथ बढूँ ? भावनाओं के अथाह सागर में गोते लगाते हुए कवि सोचता है कि जीवन पथ पर चलते हुए उपर्युक्त प्रश्न पैरों में बेड़ियाँ डाल देते हैं। बढ़ते कदम सुस्त हो जाते हैं और हृदय वेदना और व्याकुलता से भर उठता है। और इधर कवि की बेचैनी से बेपरवाह दिन जल्दी-जल्दी व्यतीत होता है।
विशेष (काव्य सौंदर्य) ― (1) कवि ने अपने एकाकी जीवन से उत्पन्न कुण्ठा का सजीव वर्णन किया है।
(2) 'मुझसे मिलने' में अनुप्रास एवं 'मैं होऊँ किसके हित चंचल ?' में प्रश्नालंकार है।
(3) 'जल्दी-जल्दी' में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
(4) भाषा सहज, सरल, सरस, तत्सम तद्भव शब्द प्रधान खड़ी बोली है।
पाठ का अभ्यास
कविता के साथ
1. कविता एक ओर जग-जीवन का भार लिए घूमने की बात करती है और दूसरी ओर 'मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ'- विपरीत से लगते इन कथनों का क्या आशय है ?
उत्तर - कवि के अनुसार व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में ही रहकर संसार के रीति-रिवाजों का पालन करना होता है। कवि के अनुसार जग के साथ व्यक्ति का रिश्ता खट्टा-मीठा होता है। कई विरोधाभास भी उसमें होते हैं। तब भी व्यक्ति को अपने कर्त्तव्यों के प्रति सचेत एवं सजग रहना होता है। दूसरी ओर, संसार की कुछ बातें कवि को कचोटती हैं। उसे पीड़ा पहुँचाती हैं। ऐसे में कवि संसार की परवाह किये बिना अपनी ही मस्ती में जीने की बात कह उठता है। धन-सुख-वैभव के पीछे दौड़ रही दुनिया में कवि स्वयं को उसका हिस्सा नहीं पाता और बागी स्वर में इस दुनिया के स्वभाव के विपरीत अपना प्रेममयी रास्ता चुनता है।
2. 'जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं'- कवि ने ऐसा क्यों कहा होगा ?
उत्तर - कवि कहता है कि यह संसार विरोधाभास मूलकों का एक जीवन्त उदाहरण है। इस जगत में जहाँ एक ओर बुद्धिमान और समझदार लोग रहते हैं, वहीं दूसरी ओर नासमझ और मूर्ख लोग भी निवास करते हैं। ज्ञानी लोग जहाँ परम सत्य (ब्रह्म) के तत्व को समझकर जीवन-भर मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रयत्नशील रहते हैं वहीं मूर्ख लोग सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति को ही अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानते हैं और जीवन भर उसी भौतिक वैभव को प्राप्त करने में लगे रहते हैं। सम्भवतया इसीलिए कवि ने कहा भी है कि जहाँ पर दाना रहते हैं, वहीं नादान भी होते हैं।
3. 'मैं और, और जग और, कहाँ का नाता'- पंक्ति में और शब्द की विशेषता बताइए।
उत्तर - यमक अलंकार से अलंकृत इस पंक्ति में 'और' शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में हुआ है। पहला 'और' कवि के स्वभाव की विशेषता बताते हुए उसे एक भावनाप्रधान व्यक्ति सिद्ध करता है। दूसरा 'और' का उपयोग 'तथा' के रूप में हुआ है। जबकि तीसरे 'और' से संसार के निवासियों की भौतिकवादी प्रवृत्ति की ओर संकेत किया गया है। वास्तव में, 'और' शब्द कवि और जग के सम्बन्धों में अन्तर अथवा विरोधाभास का चित्रण करता है। यह कवि के व्यक्तित्व, उसकी प्रवृत्ति तथा उसके व्यवहार एवं जग की भौतिकवादी सोच तथा प्रकृति के भेद का बोध कराता है।
4. शीतल वाणी में आग' के होने का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर - उपर्युक्त पंक्ति का आशय यह है कि जहाँ एक ओर कवि जब अपने गीतों एवं रचनाओं का सस्वर पाठ करता है तो उसकी वाणी सुनने वालों को अत्यन्त कोमल और मीठी लगती है। संवेदनशील हृदय से निकले कवि के उद्गारों में शीतलता होती है। किन्तु वास्तविकता में, कवि के गीतों में उसका विद्रोही स्वर छुपा है। ऐसे में उसकी वाणी बाहर से शीतल होते हुए भी स्वयं में क्रोध की आग को समेटे रहती है।
5. बच्चे किस बात की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे ?
उत्तर - बच्चे अपने माता-पिता के शीघ्र लौटने की आशा में नीड़ों से झाँक रहे होंगे। उनके माता-पिता उनके लिए भोजन की तलाश में सुबह जल्दी घोंसले से निकले होंगे। ऐसे में भूख से व्याकुल एवं माता-पिता के वात्सल्य से वंचित बच्चे अपने अभिभावकों के जल्दी-से-जल्दी घर लौटने की प्रतीक्षा में आकुल रहे होंगे। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि माता-पिता के सान्निध्य की प्रत्याशा में बच्चे नीड़ों से झाँक रहे होंगे।
6. 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है'- की आवृत्ति से कविता की किस विशेषता का पता चलता है ?
उत्तर - कविता में 'दिन जल्दी-जल्दी ढलता है' पंक्ति कई बार आई है और इससे कविता में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार की उत्पत्ति हुई है। साथ ही, इस पंक्ति की कविता में बारम्बार आवृत्ति से कविता में गेयता आ गई है और इसी कारण से यह गीत और अधिक मधुर बन पड़ा है।
कविता के आस - पास
1. संसार में कष्टों को सहते हुए भी खुशी और मस्ती का माहौल कैसे पैदा किया जा सकता है ?
उत्तर - सुख-दुःख, लाभ-हानि, आनन्द-कष्ट एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बिना एक का अनुभव हुए दूसरे की सच्ची अनुभूति सम्भव नहीं है। जीवन पथ पर चलते-चलते मिलने वाले कष्ट रूपी शूलों के बाद भी मानव अपने कर्म पथ से विमुख नहीं हो सकता। यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह जीवन में आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों से कैसे पार पाता है। यदि मनुष्य स्वयं पर आत्मविश्वास बनाए रखते हुए, कष्टों को जीवन का एक हिस्सा मानते हुए, मुस्कराकर कष्टों का सामना करता है तो न सिर्फ कष्टों की तीव्रता और उनका प्रभाव कम हो जाता है अपितु वह खुशी और मस्ती के साथ उन कष्टदायक दिनों को सफलतापूर्वक निकाल सकता है।
आशा है, उपरोक्त जानकारी उपयोगी एवं महत्वपूर्ण होगी।
(I hope the above information will be useful and important. )
Thank you.
R. F. Tembhre
(Teacher)
rfhindi.com
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